डाकिए ने घंटी बजाई
और मैं दौड पडी दरवाजे पर
सोचते हुए मेरी चिठ्ठी आई है
मैंने चिठ्ठी ली
और ईश्वर का नाम लेकर
चिठ्ठी पर लिखा पता देखा
पता मेरे ही घर का था
पर चिठ्ठी मेरे नाम नहीं थी
मैं उदास कदमों से अन्दर आयी
और सोचने लगी
मैंने नहीं दिया कभी तुम्हें अपना पता
ना ही दिय अधिकार कुछ भेजने का
जब आकाश भर बातें करने वाले ही
मुजे चिठ्ठी नहीं लिखते
फिर तुमसे तो मैंने चंद लम्हों ही
की थी बात
कभी लगता है तुम नाराज हो
कभी लगता है अब अपनापन नहीं रहा
फिर मैं सोचती हूं
कहीं कोई स्थायी रिश्ता रहा हो तो
तब तो हो सम्बन्धो में गरमाहट
फिर लगता है
जब मैंने ही तुम्हारी खोज खबर
नहीं ली तो तुम क्यूं लोगे
यही सोचकर मैं निश्चय करती हूं
अब नहीं करुंगी मैं डाकिए का ईन्तजार
पर दूसरे दिन फिर
डाकिए की घंटी बजती है
और मैं दौड पडती हूं दरवाजे पर
( सुरभि )
Good One,