चलते चलते एक दिन
पूछा था अमृता ने-
तुमने कभी वुमैन विद माईंड (woman with mind)
पेंट की है ?
चलते चलते मैं रुक गया
अपने भीतर देखा अपने बाहर देखा
जवाब कहीं नहीं था
चारों ओर देखा-
हर दिशा की और देखा और किया इंतजार
पर न कोई आवाज आई, न कहीं से प्रतिउत्तर
जवाब तलाशते तलाशते
चल पडा और पहुंच गया-
पेटिंग के क्लासिक काल में
अमृता के सवाल वाली औरत
औरत के अंदर की सोच
सोच के रंग
न किसी पेटिंग के रंगो में दिखे
न किसी आर्ट ग्रंथ में मुझे नजर आए
उस औरत का, उसकी सोच का जिक्र तलाशा
हां
हैरानी हुई देख कर
किसी चित्रकार ने औरत को जिस्म से अधिक
न सोचा लगता था, न पेंट किया था
संपूर्ण औरत जिस्म से कहीं बढकर होती है
सोया जा सकता है औरत के जिस्म के साथ
पर सिर्फ जिस्म के साथ जागा नहीं जा सकता
अगर कभी चित्रकारों ने पूर्ण औरत के साथ जागकर
देख लिया होता
और की और हो गई होती चित्रकला-अब तलक
माडर्न आर्ट में तो कुछ भी साबुत नहीं रहा-
न औरत, न मर्द और न ही कोई सोच…
गर कभी मर्द ने भी औरत के साथ जाग कर देख लिया होता,
बदल गई होती जिन्दगी हो गई होती जीने योग्य-जिन्दगी
उसकी और उसकी पीढी की भी…
.
( ईमरोज )