असंबध्द-गीत चतुर्वेदी May16 कितनी ही पीडाएँ हैं जिनके लिए कोई ध्वनि नहीं ऐसी भी होती है स्थिरता जो हूबहू किसी द्र्श्य में बँधती नहीं ओस से निकलती है सुबह मन को गीला करने की जिम्मेदारी उस पर है शाम झाँकती है वारिश से बचे-खुचे को भिगो जाती है धूप धीरे-धीरे जमा होती है कमीज और पीठ के बीच की जगह में रह-रहकर झुलसाती है माथा चूमना किसी की आत्मा चूमने जैसा है कौन देख पाता है आत्मा के गालों को सुर्ख होते दुख के लिए हमेशा तर्क तलाशना एक खराब किस्म की कठोरता है ( गीत चतुर्वेदी )