कितनी ही पीडाएँ हैं
जिनके लिए कोई ध्वनि नहीं
ऐसी भी होती है स्थिरता
जो हूबहू किसी द्र्श्य में बँधती नहीं
ओस से निकलती है सुबह
मन को गीला करने की जिम्मेदारी उस पर है
शाम झाँकती है वारिश से
बचे-खुचे को भिगो जाती है
धूप धीरे-धीरे जमा होती है
कमीज और पीठ के बीच की जगह में
रह-रहकर झुलसाती है
माथा चूमना
किसी की आत्मा चूमने जैसा है
कौन देख पाता है
आत्मा के गालों को सुर्ख होते
दुख के लिए हमेशा तर्क तलाशना
एक खराब किस्म की कठोरता है
( गीत चतुर्वेदी )