(૧)
कौन रंग फागुन रंगे, रंगता कौन वसंत?
प्रेम रंग फागुन रंगे, प्रीत कुसुंभ वसंत।
चूड़ी भरी कलाइयाँ, खनके बाजू-बंद,
फागुन लिखे कपोल पर, रस से भीगे छंद।
फीके सारे पड़ गए, पिचकारी के रंग,
अंग-अंग फागुन रचा, साँसें हुई मृदंग।
धूप हँसी बदली हँसी, हँसी पलाशी शाम,
पहन मूँगिया कंठियाँ, टेसू हँसा ललाम।
कभी इत्र रूमाल दे, कभी फूल दे हाथ,
फागुन बरज़ोरी करे, करे चिरौरी साथ।
नखरीली सरसों हँसी, सुन अलसी की बात,
बूढ़ा पीपल खाँसता, आधी-आधी रात।
बरसाने की गूज़री, नंद-गाँव के ग्वाल,
दोनों के मन बो गया, फागुन कई सवाल।
इधर कशमकश प्रेम की, उधर प्रीत मगरूर,
जो भीगे वह जानता, फागुन के दस्तूर।
पृथ्वी, मौसम, वनस्पति, भौरे, तितली, धूप,
सब पर जादू कर गई, ये फागुन की धूल।
( दिनेश शुक्ल )
(૨)
चेतन खेले होरी
सत्य भूमि, छिमा बसन्त में
समता प्राण प्रिया संग गोरी
चेतन खेले होरी
मन को माट, प्रेम को पानी
तामें करुना केसर घोरी
ज्ञान-ध्यान पिचकारी भरी-भरि
आप में छारैं होरा-होरी
चेतन खेले होरी
गुरु के वचन मृदंग बजत हैं
नय दोनों डफ लाल कटोरी
संजम अतर विमल व्रत चोवा
भाव गुलाल भरैं भर झोरी
चेतन खेले होरी
धरम मिठाई तप बहु मेवा
समरस आनन्द अमल कटोरी
द्यानत सुमति कहे सखियन सों
चिर जीवो यह जुग-जुग जोरी
चेतन खेले होरी
( कविवर द्यानतराय )