पिछली शताब्दी की कवित्री अमृता प्रीतम शहजादी थी अल्फ़ाज़ की ।
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उन की कलम ने ज़िन्दगी के हर पहलू को छुआ और इतनी सच्चाई से उकेरा कि एक नई सोच ने जन्म लिया।
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उन्होंने मोहब्बत को एक नई परिभाषा दी, एक नए सांचे में ढाला।
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किसी को इंतहा चाहा और किसी दूसरे की मोहब्बत को दिलोजान से कबूल भी किया।
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यह इतनी शिद्दत से किया कि एक मिसाल कायम की।
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मगर ऐसे रिश्तों को समझना, मान लेना और सम्मान देना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि ऐसा आम तौर पर होता नहीं।
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जब किसी ने पूछा सच्चा प्यार तो एक बार ही होता तो अमृता ने यह दोनों प्यार कैसे निभाए तो मैंने यही कहा कि ” मै अमृता के साथ १२ साल की लंबी अवधि तक संपर्क में रही लेकिन कभी उनके प्यार में कोई खोट नहीं देखा। जिस शिद्दत से उन्होंने प्यार किया किसी और को करते भी नहीं देखा”
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साहिर के लिये उन्होंने कहा ” साहिर मेरे लिए एक दूर चमकता सितारा था और इमरोज़ मेरे घर की छत “
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अमृता ने साहिर की जुदाई को भरपूर जिया और झेला भी..उसकी याद में अपने आप को सिगरेट की राख की तरह जलाया और इमरोज़ को एक खूबसूरत धुन की तरह अपनाया ।
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साहिर उनकी ज़िंदगी में एक मोहब्बत का मुजस्मा ही बना रहा … एक जीता जागता इंसान या प्रेमी नहीं बन सका, मगर अमृता उसे कभी पैगाम तो कभी उलहाने भेजती ही रही।
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उन्होंने लिखा, ” लख तेरे अंबारा विचों दस की लभया सानू इक्को तंद प्यार दी लबी ओह वी तंद इकहरी “
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वह उस मोहब्बत के झोंके को पाने के लिए ताउम्र इंतज़ार करती रही उसे खोजती रही और खोजती खोजती ही चली गई।
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इमरोज़ ने अमृता पर दिलोजान से अपना सब कुछ लुटा दिया अपने प्रेम की बारिश में उन्हें पूरी तरह भिगो दिया, फिर भी यह कैसी मजबूरी थी ?
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इमरोज़ कहते हैं , ” अमृता का साहिर को प्यार करना और मेरा अमृता को प्यार करना, हम दोनों की मज़बूरी है “
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इमरोज़ की यह दरिया दिली है कि उन्हों ने दिल से कबूल कर लिया था कि अमृता साहिर से मोहब्बत करती है और करती रहेगी… तभी तो उन्होंने अपने कमरे में साहिर की तस्वीर भी टांग रखी थी।
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अमृता की ज़िदंगी में जो पतझड़ साहिर छोड़ गए थे उन मुरझाए फूलों वाले मौसम को फिर से पुर बहार करने के लिए इमरोज़ ने सब यतन किए…
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अमृता ने साहिर से मोहब्बत की लेकिन कभी छुपाया नहीं… इमरोज़ से भी नहीं
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खलील जिब्रान ने अपनी एक किताब में साइलेंट सौरो ( silent sorrow ) का ज़िक्र किया है ठीक वैसे ही अमृता की कहानी एक खामोश शोक की कहानी थी जहां मोहब्बत ने दिल के दरवाज़े की देहली पार तो की थी और उसे अपनी जादुई सुनहरी किरणों से रोशन भी किया था लेकिन ….. जुदाई और दर्द झोली में डाल कर चुपके से चली गई ।
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अमृता ने अपना जीवन इन बची खुची तसली में जिया, उनका दिल तड़पा और इस दर्द का लावा बहा… खूब बहा…और साहित्य के एक बड़े अंबार में बदल गया ।
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एक प्रेमिका एक बहुत बड़ी लेखिका बन गई।
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( उमा त्रिलोक )