मैं जानता हूँ श्रीमान
मेरी कविताएँ वैसी नहीं है जैसी हुआ करती हैं
इनमें प्रकृति का चित्रण नहीं
इनमें स्त्रियों का सौंदर्य नहीं
इनमें जीवन का दर्शन नहीं
इनमें वह तैयारी नहीं जैसी मंझे हुए कवि करते हैं
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लेकिन मैं क्या करूँ श्रीमान
मैं जब सुबह सो कर उठता हूँ
तो इस दुनिया को देखकर मेरे दिल में एक हूक-सी उठती है
अगर पाँच हज़ार बरसों में यहीं तक पहुंचना था तो नंगे-असभ्य-निरक्षर भले थे हम
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लेकिन मैं क्या करूँ श्रीमान
सुबह से शाम तक आते-आते
कितनी बुरी तरह थक जाते हैं मेरे आस-पास के लोग
ये मरना चाहते हैं लेकिन सोचते हैं मरने में कष्ट होगा
इससे बेहतर है जिये जाते हैं
मैं इन्हें झिंझोड़ना चाहता हूँ लेकिन मैं होता कौन हूँ
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लेकिन मैं क्या करूँ श्रीमान
इस दुनिया की रात तो अंधेरे से भी काली है
प्रेमियों-स्त्रियों-बुजुर्गों के दुःख कितने भयानक हैं
भूखों के उनसे भी अधिक दारुण और डरवाने
मैं इन सबका साक्षी हूँ श्रीमान
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तब मैं डायरी उठाकर
उसके पीछे अपना काला मुँह छिपा लेता हूँ
आड़ी-तिरछी लकीरें खींचता हूँ
और उन लकीरों को बिना किसी खास तैयारी के
कविताओं के बहुत बड़े डस्टबिन में बिना किसी अफसोस के फेंक देता हूँ श्रीमान
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कुछ नहीं हो सकता
कुछ नहीं हो सकेगा
जैसी बातें करते-करते
कब मेरी आँख लग जाती है
मुझे ख़ुद ही पता नहीं चलता श्रीमान
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फिर सुबह
वही दुनिया वही दुख
वही शाम वही थकन
वही रात और वही काला अंधेरा
कविता मुझ मजबूर की मजबूरी है
जैसे जीवन को घसीटना इस दुनिया की
मैं जानता हूँ श्रीमान
मेरी कविताएँ वैसी नहीं हैं जैसी हुआ करती हैं..!
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( मनमीत सोनी )