इमरोज़ वो शख्स-ज़ीशान खान

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इमरोज़ वो शख्स
जो उम्र भर फिरता रहा
अपनी पीठ पर
अपनी प्रेमिका के प्रेमी का नाम लिए,
इमरोज़ वो शख्स
जिसकी मुस्कुराहट की सिर्फ एक वजह थी
अमृता की मुस्कुराहट,
फिर उसकी वजह किसी साहिर का
तसव्वुर ही क्यों न हो,
क्या फर्क पड़ता है,
आखिर अमृता की मुस्कान वजह थी
खुद उसके मुस्कुराने की,
लोग ये कहते है
इमरोज़ ने अमृता के लिए जिंदगी ख़ाक कर दी,
मैं ये कहता हूँ इमरोज़ ने
अपनी ज़िंदगी को बड़ी ही शिद्दत से जिया,
शायद इमरोज़ जानता था इश्क़ किसे कहते है,
अहसासों और जज़्बातों की
कीमत का सही अंदाज़ा था उसे,
सुनो लड़को
इश्क़ सीखना है तो इमरोज़ से सीखो,
ज़रूरी नही के जिसे तुम चाहो
वो भी तुम्हे टूट कर चाहे,
किसी को बाहों में भरने से पहले ही
उसे आज़ाद कर देना इश्क़ है….
सनम नज़र में हो फिर विसाल की ज़रूरत क्या है,
चाँद का दीदार ही काफी है रतजगे के लिए…
अलविदा इमरोज़,
उम्मीद हैं अब जहां तुम होगे वहाँ सिर्फ खुशियां होंगी…
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( ज़ीशान खान )

इमरोज़ ने नहीं छोड़ा-दीपाली अग्रवाल

 

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इमरोज़ का नाम आते ही अमृता प्रीतम याद आ जाती हैं, चूंकि वे उनकी मशहूर प्रेम कहानियों का एक बड़ा हिस्सा थे। उनके जीवन के महत्वपूर्ण किरदार जिसने अपने सारे वजूद को अमृता की छांव बना लिया। उनकी मृत्यु हो गई है, इमरोज़ की मृत्यु हो गई है अमृता के जाने के लगभग 18 साल बाद। उनके क़रीबी बताते हैं कि वे अक्सर ही अमृता को याद करते रहते और कहते कि वो यहीं-कहीं मौजूद है। इमरोज़ से लोग इस प्रेम कहानी के आकर्षण में मिलना भी चाहते थे। उन्हें फ़ोन लगाते और अमृता के बारे में पूछते, पहले तो वे कई कार्यक्रमों में नज़र भी आए फिर जाना बंद कर दिया, उम्र का असर रहा होगा शायद।
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लेकिन इमरोज़ एक मशहूर पेंटर भी थे, उन्होंने कई किताबों के आवरण तैयार किए, अपनी उम्र के आख़िरी पड़ाव तक भी उनकी कूची किताबों के लिए रंग भर रही थी। 26 जनवरी, 1926 को पंजाब में पैदा हुए इंद्रजीत 1966 में लगभग 40 की उम्र में अमृता से मिले थे। अमृता से एक कलाकार के तौर पर जुड़े और वहीं से नाम बदल कर किया इमरोज़। उनकी औऱ अमृता का दोस्ती गहराती गई। अमृता अपने पति प्रीतम से अलग हो चुकी थीं और 2 बच्चों की मां थीं, वह साहिर के प्रेम में थीं और इमरोज़ अमृता के। अमृता और इमरोज़ के शारीरिक संबंध न थे जबकि वह एक छत्त के नीचे रहते थे, लोग इसे प्लेटोनिक लव मानते हैं। अमृता रात में लिखती रहतीं और इमरोज़ चाय का कप रख जाते।
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एक बार गुरुदत्त ने इमरोज़ की पेंटिंग से प्रभावित होकर उन्हें बंबई बुलाया, अमृता ने उन्हें जाने भी दिया, वो बंबई भी पहुंच भी गए कि अमृता ने तार भेजा कि बुखार में हैं और इमरोज़ वहां से वापस दिल्ली आ गए। अमृता प्रीतम राज्यसभा गईं तो वो उन्हें छोडने जाते कि लोग उन्हें ड्राइवर समझ बैठे थे। इमरोज़ ने अपने अस्तित्व को अमृता में मिला दिया था। उनका प्रेम बिना किसी आकांक्षा और इच्छा के था। वह उनकी साथ चाहते थे। इमरोज़ ने उनके लिए कविताएं भी लिखीं, उनके जाने के बाद भी, वे अमृता को ही याद करते रहते और मानते कि वह कभी मरी ही नहीं हैं। सच है कि प्रेम मरता ही कहां है, वह तो भीतर ही मौजूद रहता है। अमृता ने भी इमरोज़ के लिए लिखा था कि मैं तैनूं फिर मिलांगी औऱ ये नज़्म ख़ूब लिखी-पढ़ी और सुनी गई।
अमृता की वो किताब जो उनके और साहिर के क़िस्से कहती है रसीदी टिकट, उसका आवरण इमरोज़ ने तैयार किया था। इमरोज़ जैसा प्रेम वाकई विरले ही कर पाते हैं, ख़ुद को खोकर किसी के जीवन की चमक बनना आसान कहां है। इमरोज़ से एक दफ़ा अमृता ने कहा था कि वो पूरी धरती का चक्कर लगा ले और लगे कि अब भी अमृता के साथ ही रहना है तो वह इंतज़ार करती मिलेंगी। इमरोज़ ने अमृता का चक्कर लगाकर कहा कि हो गया पूरी धरती की चक्कर और वह उनके साथ ही रहेंगे।
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इमरोज़ ने वो साथ अभी तक नहीं छोड़ा था, वह अपनी स्मृतियों और अपने होने भर से ही उऩकी मौजूदगी का एहसास करवाते थे। अब अमृता का धरती पर स्मरण करवाने के लिए वो देह नहीं बची। मुहब्बत में ज़िंदगी में ऐसे भी जी जाती है क्या भला।
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( दीपाली अग्रवाल )

She Live On-Uma Trilok

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मेरी किताब “She Live On“ के पन्नो से…
मैंने एक बार इमरोज़ जी से पूछा, “ इमरोज़ जी, अमृता जी को उनके लेखन पर, उनकी शख़्सियत पर इतनी वाह वाही मिलती है और आपको कई बार कुछ लोग पहचानते तक भी नहीं, आपको बुरा नहीं लगता ? “
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तब वह हंस कर बोले, “तुम्हें हम अलग अलग लगते हैं क्या, भोलिऐ , अमृता और मैं तो एक ही हैं , वह वाह वाही तो मुझे भी मिल रही होती है ना“
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मुझे श्रीकृष्ण और राधा रानी का क़िस्सा याद आ गया….
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जब श्रीकृष्ण वृंदावन छोड़ कर जा रहे थे तो राधा जी ने उनसे कहा, “कान्हा, मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूँगी ? तुम मुझ से ब्याह कर लो और अपने साथ ले चलो”.
श्रीकृष्ण मुँह मोड़ कर खड़े हो गये और राधा जी ने सोचा वह मना कर रहे है, तब श्री कृष्ण ने कहा था “राधे , ब्याह रचाने के लिए दो लोगों की ज़रूरत होती है, तुम और मैं तो एक ही हैं“
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ऐसा प्यार कलियुग में भी घटा लेकिन लोगों ने नहीं समझा
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( उमा त्रिलोक )

अमृता गई ही नहीं-उमा त्रिलोक

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प्रोमिला जी ने ठीक ही कहा कि माजा ( इमरोज़ अमृता जी को प्यार से माजा बुलाते थे ) गई ही नहीं वह इमरोज़ जी के साथ ही थी.
मुझे याद है अमृता जी के दाह संस्कार के वक्त, जब इमरोज़ जी एक कोने में अकेले खड़े थे तो मैंने उनके कंधे पा हाथ रख कर कहा था “इमरोज़ जी अब उदास नहीं होना, आपने तो दिलों जान से सेवा की थी फिर भी….”
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उन्होंने बात काट कर कहा था….
“उमा जी, उसने जाना कहाँ है यही रहना है मेरे आले दुआले ,,,, मैं तो खुश हूँ , जो मैं नहीं कर सका वह मौत ने कर दिया , उसे उसके दर्द से निजात दिला दी ।
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और वह तो हमेशा यही कहते “वह गई नहीं , उसने शरीर छोड़ा है साथ नहीं , जब तक मैं ज़िंदा हूँ वह मेरे साथ ज़िंदा है “
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इमरोज़ जी अमृता जी का कमरा आज भी रोज़ सजाते, ताज़े एडेनियम के फूलों से महकाते, उनके लिए खाना पकाते,पूछने पर कहते, “ मैंने पनीर की भुजिया बनायी है या मैंने वेज सूप बनाया है जो अमृता को बहुत पसंद है“ और फिर प्लेट में परोस कर उनके कमरे में ले जाते …
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मैं कभी कभी यह सोचती वह अभी भी कल्पना की दुनिया मैं रह रहें हैं लेकिन कुछ वाक़यात तो ऐसे थे कि मुझे भी चकित कर देते और यक़ीन हो जाता कि वे दोनों अभी भी साथ साथ हैं ।
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बहुत से ऐसे वाक़यात का ज़िक्र मैंने अपनी किताब “ She Lives On“ में किया है । उन सब बातों के बाद तो मुझे भी यक़ीन हो गया था कि वह दोनों साथ साथ हैं.
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यह किताब “She Lives On “ का गुजराती अनुवाद है.
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(उमा त्रिलोक )

इमरोज़ हो नहीं सकते-प्रतिक्षा गुप्ता

इमरोज़ हो नहीं सकते
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मेरे दिल में व्यक्ति इमरोज़ के लिए बहुत इज़्ज़त है। हमेशा रहेगी। इसलिए नहीं कि वह अमृता प्रीतम को अमाप प्रेम करते थे, जो कइयों के लिए आला लेखिका हैं। बल्कि इसलिए कि वह अमृता-साहिर वग़ैरह से ज़्यादा बड़े प्रेमी और मनुष्य थे। कहीं ज़्यादा बड़ा कवि-जीवन उन्होंने जिया, बड़ी कविता संभव किए बग़ैर।
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ऐसा बहुत कम लोग कर पाते हैं। कविता जैसा जीवन जीना। अपना प्रेम चुनना। उसे हर हाल जीना। दुनिया की न परवाह करने का दम भरनेवाले आज के ज़माने से बहुत पहले दुनिया को नाकुछ साबित करके गरिमा से सर्वप्रिय बन जाना आसान नहीं।
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इमरोज़ हमारे संसार का सुख थे। हममें से न जाने कितने हैं, जो अपने लिए एक इमरोज़ चाहते हैं। इमरोज़ होना चाहते हैं। हो नहीं सकते! उन जैसा अन्तःकरण असंभव है।
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( प्रतिक्षा गुप्ता )

अलविदा इमरोज़-उमा त्रिलोक

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सुविख्यात कवियत्री अमृता प्रीतम के पीछे कौन शख़्स ताउमर खड़ा रहा जिस को मुखातिब होकर वह कहा करती थी, “ ईमा, ईमा,तूँ दूर ना जाया कर , मेरे आले दुआले ई रिया कर, तेरा दूर जाना मैनु चंगा नई लगदा “ ( ईमा ईमा ( प्यार से अमृता, इमरोज़ को ईमा बुलाया करती थीं ) तुम दूर मत जाया करो, मेरे आस पास ही रहा करो, तुम्हारा दूर जाना मुझे अच्छा नहीं लगता )
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याद आता है वह वाकया जब निर्देशक गुरुदत्त के बुलावे पर इमरोज़ मुंबई चले गए थे तो अमृता जी ने उन्हें ख़त में लिखा था, “जब से तुम गये हो मुझे बुख़ार चढ़ा हुआ है और जो फल तुम ख़रीद कर रख गये थे वह भी ख़त्म हो गए है । तुम तो जानते ही हो मैं कुछ भी ख़रीद करने बाहर नहीं जाती“
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ख़त पढ़ते ही इमरोज़ जी नौकरी छोड़ कर अपनी अमृता के पास तुरंत दिल्ली लौट आये थे । वह जानते थे अमृता उनकी ग़ैरहाज़िरी में कैसे मुश्किल में रह रही है ।
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बहुत कम लोग जानते थे कि अमृता के पीछे कौन शख़्स खड़ा है जिसके बिना अमृता निःसहाय सी महसूस करती रहती थीं । पूछती थी वह किसे अपनी कविता, कहानी या नावेल सुनाये ? इमरोज़ के बिना वह बहुत अकेली महसूस करती थीं ।
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मैं हैरान हूँ अमृता जी ने स्वर्ग में , इमरोज़ के बिना १८ साल कैसे बिताये होंगे जिस इमरोज़ ने हर मुसीबत में उनका हाथ थामे रखा और हर आँधी , तूफ़ान , बाढ़ से बचाये रखा !
मुझे यक़ीन है अब जब वह इमरोज़ जी को मिली होंगी तो ज़रूर कहा होगा “क्यों ईमा, ऐनी देर क्यों लायी ?“ ( क्यों इमरोज़, इतनी देर क्यों लगायी )
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( उमा त्रिलोक )

વરસાદ વિશે પૂછ-દેવાયત ભમ્મર

વરસાદ વિશે પૂછ,માવઠાંનું રહેવા દે.

દરિયા વિશે પૂછ, નાવડાનું રહેવા દે.

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પૂછ અગર પૂછવું હોય તો ભીંનાશ વિશે.

આપણાં વિશે પૂછ, તાપણાનું રહેવા દે.

વરસાદ વિશે પૂછ,માવઠાંનું રહેવા દે.

મૌસમ નથી અને જે વરસી પડ્યાં છે.

બાવરા વિશે પૂછ, સાગઠાનું રહેવા દે.

વરસાદ વિશે પૂછ,માવઠાંનું રહેવા દે.

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નથી ખબર કે અળખામણું આગમન છે!

બાથ વિશે પૂછ, બાવડાનું રહેવા દે.

વરસાદ વિશે પૂછ,માવઠાંનું રહેવા દે.

જળ ભર્યા છે ઝબોળી ‘દેવ’ બેડલા.

કુવા વિશે પૂછ, પાવઠાનું રહેવા દે.

વરસાદ વિશે પૂછ,માવઠાંનું રહેવા દે.

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( દેવાયત ભમ્મર )

પ્રગટી જ્યોત જ્યાં-રાજેશ વ્યાસ “મિસ્કીન”

ના રહ્યો વર્ષો જૂનો અંધાર પ્રગટી જ્યોત જ્યાં,

થઈ ગયું ઘર તેજનો અંબાર પ્રગટી જ્યોત જ્યાં.

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એક સરખો છે બધે ધબકાર પ્રગટી જ્યોત જ્યાં,

દેહમાં હું દેહનીયે બ્હાર પ્રગટી જ્યોત જ્યાં.

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તેલની માફક પુરાતું જાય છે કેવળ સ્મરણ,

માત્ર અજવાળું જ અપરંપાર પ્રગટી જ્યોત જ્યાં.

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અણસમજમાં કેટલા આભાસ અંધારે રચ્યા,

ના કશું આ પાર કે ઓ પાર પ્રગટી જ્યોત જ્યાં.

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વસ્ત્ર જુદાં લાગતાં’તાં સ્પર્શની સીમા થકી,

તેં વણેલા જોઉં સઘળા તાર પ્રગટી જ્યોત જ્યાં.

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તું ઝલકતી સર્વ રૂપે, છે સ્વયમ સૃષ્ટિ જ તું,

શોધવો ક્યાં જઈ હવે સંસાર પ્રગટી જ્યોત જ્યાં.

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પૂર કેવાં ઊમટ્યાં સઘળું તણાયાની મઝા,

ક્યાં હવે એ ગ્રંથ કે એ સાર પ્રગટી જ્યોત જ્યાં.

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કોઈ મારાથી અલગ ના, હું અલગ ના કોઈથી,

થઈ ગયું કંઈ એમ એકાકાર પ્રગટી જ્યોત જ્યાં.

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( રાજેશ વ્યાસ “મિસ્કીન” )

કાંઈ પણ વાંધો નથી-મઘુમતી મહેતા

આ જગતની જાતરામાં કાંઈ પણ વાંધો નથી,

તે લખી તે વારતામાં કાંઈ પણ વાંધો નથી.

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આંખ મીંચી ચાલવામાં મસ્તી, પણ જોખમ ખરું,

એમ લાગે, આપણામાં કાંઈ પણ વાંધો નથી.

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જો પ્રયાસોના ગુબારા આભ આંબી ના શકે,

દોર એનો કાપવામાં કાંઈ પણ વાંધો નથી.

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સ્વપ્નમાં નહીં આંખ સામે એક પળભર આવ તો,

જિંદગીભર જાણવામાં કાંઈ પણ વાંધો નથી.

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કેફ કાયમ હોય ના-એ સત્યને સમજી પછી,

ઘૂંટ બે-ત્રણ માણવામાં કાંઈ પણ વાંધો નથી.

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આપની પરછાઈ મોટી આપથી જો થાય તો,

દીપને સંતાડવામાં કાંઈ પણ વાંધો નથી.

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( મઘુમતી મહેતા )

અપના ધૂણા અપના ધૂવાં-લલિત ત્રિવેદી

અપના કરગઠીયાં ને છાણાં…અપના ધૂણા અપના ધૂવાં,

દીધા ચેતવી દાણેદાણા… અપના ધૂણા અપના ધૂવાં.

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સમિધ થઈ ગ્યા તાણાવાણા… અપના ધૂણા અપના ધૂવાં,

ચેતી ગયા’ ટાણા ને વ્હાણા… અપના ધૂણા અપના ધૂવાં.

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ઘરમાં જેમ ફરે ધૂપદાન…એમ કોડિયે ઠરે તૂફાન…

એમ ઓરડા થઈ ગયા રાણા… અપના ધૂણા અપના ધૂવાં..

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આંખ વાખ અરુ સાખ ચેતવી…અંત અરુ શરૂઆત ચેતવી…

ઝગવી દીધા દાણેદાણા… અપના ધૂણા અપના ધૂવાં.

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એક ચીપિયો ઐસા દાગા…ભરમ હો ગયા ડાઘા…વાઘા…

ખાણાના ખૂલ ગયા ઉખાણા… અપના ધૂણા અપના ધૂવાં..

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એક નજર ને શક ને હૂણા, એક પલક ને ધખ ધખ ખૂણા,

ધૂવાં કર દિયા ઠામ ઠિકાણા… અપના ધૂણા અપના ધૂવાં.

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આભ સોસરું ત્રિશૂળ ખોળ્યું …નાભ સોસરું જળમૂલ ખોલ્યું,

ઔર ધૂવાંમાં થાપ્યાં થાણાં… અપના ધૂણા અપના ધૂવાં.

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( લલિત ત્રિવેદી )