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वर्षा ऋतु को समर्पित-उमा त्रिलोक
आहट-उमा त्रिलोक
खोल दो खिड़की-उमा त्रिलोक
खोल दो खिड़की
जानती हूं
हवा के साथ साथ
आयेगी विकलता, और बेकसी
किसी मजलूम की
धुआं बन कर
आज
चाहती हूं
फूंक देना उसी धुएं में
एक चिनगारी
जो आग बन कर भभके
जला दे, खाक कर दे
सारे जुल्मों सितम
फिर
उसी खाक से उभरे
एक परिंदा
जो फैलाए पंख
नए दौर में
भरे ऊंची उड़ान
आसमान से छीन लाए
अपने हकूक
होने न दे हावी किसी को
हकपरसती पर
सुना दे फरमान ऐसा, कि
लहराये
परचम इन्कलाब का
खोल दो खिड़की
.
( उमा त्रिलोक )
मुलाकात-उमा त्रिलोक
तुमने पूछा नहीं
मगर ऐसा लगा कि
पूछ लिया
कि,
कैसी हूं
मेंने भी
बिन बताए बता दिया
कि, कैसी हूं
मगर सुनो
यह तो बताओ
कि
वह प्रेम गीत
जो तुमने मेरे लिए
लिखा था
मुझे क्यों नहीं सुनाया
उसके बदले में
क्यों थमा दिया
एक सुरमई
वर्षा घन
जो गरजा भी नहीं
शायद इसलिए कि
तुम जानते हो
मुझे गरजते बादलों से डर लगता है
बादल बरसता रहा,और
मैं भीगती खड़ी रही
और
तुमने मुझे एक गीत
ओढ़ा दिया
जिसे ओढ़े हुए मैं आज भी
वहीं हूं
उसी मंदिर के अहाते में
यह मान कर कि
मुलाकात अभी बाकी है
.
( उमा त्रिलोक )
क्या करोगे पूछ कर-उमा त्रिलोक
बिसरी बातें-उमा त्रिलोक
वह क्षण-उमा त्रिलोक
होते हुए भी नहीं होता
रहते हुए भी नहीं रहता
वह क्षण
फिर
अनायास ही दिखता है
नदी के कल कल में
पत्ती के उगने में
कली के खिलने में
ठहर जाता है कभी कभी
ओस की नन्ही बूंद में
उस क्षण भंगुर को मेंने
कभी देखा चांद किरन में
कभी रात के आंचल में
दिनकर से रूठा हो जैसे, फिर
छिप जाता वह चिलमन में
तत्व विलीन
वह क्षण
प्रश्न बना रह जाता
ढूड लिया जब अंदर बाहर
फिर मैने
अपने भीतर झांका
हां, अपने भीतर झांका
वहीं मिला, वह नटखट मुझ को
धीमे से मुस्काता
धीमे से मुस्काता
.
( उमा त्रिलोक )