दु:खान्त यह नहीं…

दु:खान्त यह नहीं होता की रात की कटोरी को कोई जिन्दगी के शहद से भर न सके और वास्तविकता के होंठ कभी उस शहद को चख न सकें-

दु:खान्त यह होता है जब रात की कटोरी पर से चन्द्रमा की कलई उतर जाए और उस कटोरी में पडी हुई कल्पना कसैली हो जाए-

दु:खान्त यह नहीं होता की आपकी किस्मत से आपके साजन का नाम-पता न पढा जाए और आपकी उम्र की चिट्ठी सदा रुलती रहे-

दु:खान्त यह होता है कि आप अपने प्रिय को अपनी उम्र की सारी चिट्ठी लिख लें और फिर आपके पास से आपके प्रिय का नाम-पता खो जाए-

दु:खान्त यह नहीं होता कि जिन्दगी के लंबे डगर पर समाज के बंधन अपने कांटे बिखेरते रहें और आपके पैरों में से सारी उम्र लहू बहता रहे-

दु:खान्त यह होता है कि आप लहू-लुहान पैरों से एक उस जगह पर खडे हो जाएं जिसके आगे कोई रास्ता आपको बुलावा न दें-

दु:खान्त यह नहीं होता कि आप अपने ईश्क के ठिठुरते शरीर के लिए सारी उम्र गीतों के पैहरन सीते रहें-

दु:खान्त यह होता है कि ईन पैरहनों को सीने के लिए आपके पास विचारों क धागा चुक जाए और आपकी कलम-सुई का छेद टूट जाए…

 

( अमृता प्रीतम )

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4 replies on “दु:खान्त यह नहीं…”

  1. अमृता प्रीतम की अंतरतम अनुभूतियाँ, शब्दों के ताने बाने में, पाठक को विस्मित सी करती हुई झकझोर देती है | हिना ने उन्हें हिंदी और गुजराती पाठकों के लिए एक ही प्लेट्फार्म पर प्रस्तुत कर बड़ा स्तुत्य प्रयास किया है | अगर कतिपय मात्रा दोष ( जैसे इन के स्थान पर ईन का प्रयोग ) छोड़ दें तो भाषा की दृष्टि से भी प्रस्तुति श्रेष्ठ है |

    मैं, जब भी इस काव्य को बांचता हूँ, में जेहन में अपने पड़ोस की एक विधवा बंगालिनी महिला का चित्र उभर आता है जिसका इकलोता युवा पुत्र अपने सुखमय संसार की रचना में व्यस्त, माँ से अलग बस गया है | माँ वृन्दावन वासिनी विधवा भजन गायिकाओं की तरह सुकोमल ह्रदय वाले सीने पर धरती भर का बोझ लादे हुए जी भर रही है | बेटे का नाम सुकांत रखा था माँ ने, दुखांत के लगभग विरुद्धार्थी शब्द का आभास सा देता हुआ; परन्तु, सुकांत मात्र एक शब्द रह गया है – एक स्मृति, बोझिल सी |

    अमृता जी के शब्द संसार की सारी दुखांत परिभाषाएँ, लगता है मानो इसी माँ के लिए रची गयी हों !

    हिना को पुनः साधुवाद |

    – RDS

  2. अमृता प्रीतम की अंतरतम अनुभूतियाँ, शब्दों के ताने बाने में, पाठक को विस्मित सी करती हुई झकझोर देती है | हिना ने उन्हें हिंदी और गुजराती पाठकों के लिए एक ही प्लेट्फार्म पर प्रस्तुत कर बड़ा स्तुत्य प्रयास किया है | अगर कतिपय मात्रा दोष ( जैसे इन के स्थान पर ईन का प्रयोग ) छोड़ दें तो भाषा की दृष्टि से भी प्रस्तुति श्रेष्ठ है |

    मैं, जब भी इस काव्य को बांचता हूँ, में जेहन में अपने पड़ोस की एक विधवा बंगालिनी महिला का चित्र उभर आता है जिसका इकलोता युवा पुत्र अपने सुखमय संसार की रचना में व्यस्त, माँ से अलग बस गया है | माँ वृन्दावन वासिनी विधवा भजन गायिकाओं की तरह सुकोमल ह्रदय वाले सीने पर धरती भर का बोझ लादे हुए जी भर रही है | बेटे का नाम सुकांत रखा था माँ ने, दुखांत के लगभग विरुद्धार्थी शब्द का आभास सा देता हुआ; परन्तु, सुकांत मात्र एक शब्द रह गया है – एक स्मृति, बोझिल सी |

    अमृता जी के शब्द संसार की सारी दुखांत परिभाषाएँ, लगता है मानो इसी माँ के लिए रची गयी हों !

    हिना को पुनः साधुवाद |

    – RDS

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