लडकियां अब और ईन्तजार नहीं करेंगी
वे घर की देहरी लांघकर
बाहर निकल आऍगी.
बेखौफ सडकों पर दौडेंगी
उछलेंगी, कूदेंगी, खेलेंगी
और मैदानों में गूंजेगीं उनकी आवाजें.
चूल्हा फूंकते, बर्तन मांजते और रोते रोते
थक चुकी हैं लडकियां
अब वे नहीं सहेंगी मार
नहीं सुनेंगी किसी की झिडकी और फटकार.
वो जमाना गया जब लडकियां
चूल्हों में सुलगती थीं
चावलों में उबलती थीं
और लुढकी रहती थीं कोनों में
गठरियां वनकर.
अब नहीं सुनाई देगी
किवाड के पीछे उनकी सिसकियां
फुसफुसाहटें और भुनभुनाहटें
और अब तकिए भी नहीं भीगेंगे.
( देवमणि पांडेय )
very good post congrants
bahot achhi lagi ,dhanyawaad, Devmani Pandey
ki kalam jo aapne bhejee.
postedby:::
Chandra.