प्रिय विजय मूर्ति,
प्रेम.
मैं यात्रा करुं या न करुं-बोलूं या न बोलूं
ईससे कोई भी भेद नहीं पडेगा, उनके लिए जो कि
मेरे साथ चलने को तैयार है.
उनके लिये रुके हुए भी मेरी यात्रा जारी रहेगी
और मौन में भी मैं बोलता रहूंगा.
शरीर भी मेरा निराकार में खो जाये, तो भी
मेरे हाथों का सहारा उन्हें मिलता रहेगा.
और, आज ही नहीं-कभी भी काल के अनंत
प्रवाह में मैं उन्हें मार्ग दूंगा.
क्योंकि, अब मैं नहीं हूं-वरन स्वयं प्रभु ही मेरी
बांसुरी से गीत गा रहा है.
जिनके पास आंखे हों-वे देख लें.
जिनके पास कान हों-वे सुन ले.
और जिनके पास प्रज्ञा हो-वे पहचान लें.
ओशो