मैं तुम्हें फिर मिलूंगी
मैं तुम्हें फिर मिलूंगी
कहां ? किस तरह ? नहीं जानती
शायद तुम्हारे तख्यिल की चिनगारी बनकर
तुम्हारी कैनवस पर उतरूंगी
या शायद तुम्हारी कैनवस पर
रहस्यमय रेखा बनकर
खामोश तुम्हें देखती रहूंगी
या शायद सूरज की किरन बनकर
तुम्हारे रंगो में घुलूंगी
या रंगो की बांहो में बैठकर
तुम्हारी कैनवस को लिपटूंगी
पता नहीं कैसे-कहां ?
पर तुम्हें जरुर मिलूंगी
.
या शायद एक चश्मा बनी होऊंगी
और जैसे झरनों का पानी उडता है
मैं पानी की बूंदे
तुम्हारे जिस्म पर मलूंगी
और ठंडक-सी बनकर
तुम्हारे सीने के साथ लिपटूंगी…
मैं और कुछ नहीं जानती
पर ईतना जानती हूं
कि वक्त जो भी करेगा
यह जन्म मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म जब मिटता है
तब सब-कुछ खत्म हो जाता है
पर चेतना के धागे
कायनाती कणों के होते है
मैं उन कणों को चुनूंगी
धागों को लपेटूंगी
और तुम्हें मैं फिर मिलूंगी…
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( अमृता प्रितम )
तुम्हारा इंतज़ार रहेगा…
तुम्हारा इंतज़ार रहेगा…