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आज उसे देखते ही मेरे आँसू निकल आये
स्वयं विधाता ही जैसे रुठ गये
कल तक हरा भरा पत्तियों से लदा था
आज बिलकुल सूखा ठूंठ रह गया था
उसके दुर्भाग्य पर आंसू बहाने
एक पत्ता तक नहीं था
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किसी जादूगर को आते मैंने नहीं देखा
किंतु एक दिन सबेरे बडा अजूबा देखा
हर सूखी डाल में निकल आयी
कोमल किसलय उंगलियां
प्रभात के स्वागत में जैसे
मेंहदी रची हथेलियां
डाली – डाली में उग आये असंख्य सुर्ख ओठ
नवजात शिशु से –
गुलाब की पंखुडी से –
छूने भर से कहीं लहू न टपक जायें ऐसे !
क्या इस जीव जगत को चूमने आये हैं
या जमाने के झमेलों में
इंसान के टूटते विश्वास को जगाने आये
सूखते प्राणों में नवजीवन भरने आये
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कभी सोचें सब खत्म हुआ
सब सूख गया
सब डूब गया
सब बिगड गया
सब टूट गया…
तब एक पुकार सुनी –
रुको, रुको…
उस जादूगर के आने की राह तो देखो !
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( नन्दिनी मेहता )
बड़ी सुंदर रचना !
धन्यवाद !
बड़ी सुंदर रचना !
धन्यवाद !