देह के लिबास – आशा पाण्डेय ओझा

आज फिर उग आई है

खयालों की जमीन पर वो याद

जिस शाम मिले थे

हम तुम पहली बार

और मौसम की

पहली पर तेज बारीश भी तो

हुई थी उसी रोज

चाय की इक छोटी सी थडी में

ढूँढी थी हमने जगह बारिश से बचने को

ठीक वैसे ही

कहीं न कहीं हम बचते रहे

कहने से मन की बात

और चाहते भी रहे इक दूजे को

कितनी पाकीजा होती थी ना तब मुहब्बतें

देह से परे

सिर्फ रुहें मिला करती थी

और मोहताज भी नहीं थी शब्दों की

हाँ पूर्णता कभी मोहताज नहीं होती

ना शब्दों की ना देह की

वो अनछुए अहसास आज भी जीती हूँ

बरसा-बरस बाद

तुम भी जीते होओगे ना

वो लम्हे आज भी

ठीक मेरी ही तरह

हाँ जेते तो होगे जरुर

तुम भी तो ठहरे मेरी ही पीढी के

तब की पीढियाँ नहीं बदला करती थी

रोज-रोज महब्ब्त के नाम पर देह के लिबास

 .

( आशा पाण्डेय ओझा )

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4 replies on “देह के लिबास – आशा पाण्डेय ओझा”

  1. हम रखते है ताल्लुक तो निभाते है जिंदगी भर,
    हम से बदले नहीं जाते रिश्ते लिबासो की तरह…!!!

  2. हम रखते है ताल्लुक तो निभाते है जिंदगी भर,
    हम से बदले नहीं जाते रिश्ते लिबासो की तरह…!!!

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