तुम आना-उमा त्रिलोक Oct14 सर्दी में, खिड़की के पर्दों से छन छन कर आती है जैसे धूप उसी गुनगुनी गर्माहट से छू जाना मुझे तुम आना वैसे ही जैसे बरसातों में अचानक होने लगती है बूंदाबांदी गरजते है बादल और कड़कती हैं बिजलियां उन्ही बिजलियों के खौफ से बचाने चुपके से आकर मेरा कंधा सहलाना हौले से आना फिर बैठना सट कर मेरे ही हाथों की कलम को लेकर मेरी ही लिखी अधूरी सतर को पूरा कर जाना जानती हूं तुम्हे भरी गर्मी में भी चाय बहुत भाती है तुम आना मेज़ पर रखी मेरी ही प्याली से, दो घूंट चाय चुरा लेना तुम्हारे आते ही मैं कट जाऊंगी दुनिया से समेट लूंगी इन पलों को अपने ही दायरे में जहां, सिर्फ तुम्हारे और मेरे लिए ही जगह होगी तुम इन्ही लम्हात के पहलू में समा जाना तुम आना . ( उमा त्रिलोक )