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याद रखना एक बात-निलाक्ष मिश्रा “अस्तित्व”
॥ जानकी के लिए ॥-राजेश्वर वशिष्ठ
तुम आना-उमा त्रिलोक
बच्चा हुआ है-मनमीत सोनी
मैं कविताएँ क्यों लिखता हूँ-
कोरोना-समय में एक मृतक की अनलिखी कविताएँ-मनमीत सोनी
1.
मृतक भी तो चाहता होगा
अंतिम बार देख ले उन्हें
जिन्हें वह हर दिन देखता था!
.
2.
फूंको मत
जलाओ मत-
.
अग्नि दो मुझे!
.
3.
बंद शीशों वाली एम्बुलेंस में
सीधे श्मशान घाट ले गए मुझे!
.
अहा!
.
वह मेरा बरामदा
वह चार कंधों का झूला
वह पुराने बाज़ार का आख़िरी चक्कर
वह रोना जो आज के दिन सिर्फ़ मेरे हिस्से का था
.
अब टीस बनकर रह गया है!
.
4.
जब राख हो जाऊँगा
तब इन्फेक्टेड नहीं कहलाऊंगा-
.
गंगा में बहूँगा
कलमुँही बीमारी को चिढ़ाते हुए!
5.
संसारियो!
तुम्हारा मृत्यु-बोध मर चुका था
.
मैंने असमय मर कर
उसे फिर से जीवित कर दिया है..!
.
6.
एक मेला था
जिसमें सब लोग जी रहे थे
नाच रहे थे, खा रहे थे, पी रहे थे-
फिर एक सच्ची अफ़वाह उड़ी
भगदड़ मची और मैं
उसमें कुचलकर मर गया!
.
( मनमीत सोनी )
वबाओ के इस दौर में-हिना आर्य

होली मुबारक- हिना आर्य
वो कमज़ोर थी,
फिर भी काफी रफ्तार से
सीढियां चढ़ रही थी ।
सांसे फूलने लगी थी।
माथे पर था घाव।
मैंने कहा” रुको, तुम्हारा घाव गहरा है ” ।
वो बोली “ये अब पक चुका है” !!!
वार्ड में ले जाते हुए मैंने देखा,
आंचल के नीचे उभर आया है कोई गुब्बारा।
उसके फल स्वरूप
आंखो में था दर्द और
महीनों का इंतजार ।
सच मुच
उसका घाव पक चुका था ।
मै वार्ड के बाहर ही ठहर गई ।
उसकी चिंखो में
मेरा काजल बह गया ।
जीव से जीव पैदा कर
आंखो में छलक उठा संतोष,
जहां रहता था दर्द और इंतजार ।
घाव से निकला पीला पस ।
बच्चे को दुनिया दिखाते
बह गया लाल खून,
फिर बहने लगी वक्षस्थल से सफेद धार ।
फटी साड़ी में भी उसकी सुंदरता उभर आई,
जैसे बहार आई ।
चंद रुपए हाथों में थमाते हुए
मैंने कहा ” होली मुबारक” ।
__( स्त्री स्वयं रंगो का उत्थान है।)
– हिना आर्य
गर कहोगे कि-सुनीता पवार