डोरवेल बहुत ही संकोच में बजाई गयी थी
मैं चौंका!!….कौन_होगा….????
काम वाली बाई,कूड़ा उठाने वाला,या गाड़ी साफ करने वाला
सबका डोरवेल बजाने का स्टाइल अलग ही होता है।
वैसे भी 55 दिन से अधिक हो गये
अज्ञातवास में न कोई दोस्त आ रहे न कोई रिश्तेदार।
गेट पर जाकर देखा तो ..मोहल्ले के मंदिर के पुजारी
पंडित_जी खड़े थे।
ससंकोच से ही करबद्ध सादर प्रणाम किया।
उन्होंने आशीर्वाद देते हुये पुराने,,
किन्तु साफ-सुथरे थैले से मंदिर का प्रसाद निकाल कर दिया।
हमने पूछा पंडित जी कोई दिक्कत परेशानी??
तभी पंडित जी ने मुँह से अपना गमछा हटाया,
वे धीरे-धीरे सुबकते हुये बोले कि आप लोगों के दान और चढ़ावे से मेरे परिवार का भरण_पोषण होता है…
एक महीने से सब बंद है…भूखों मरने की नौबत है।
हमलोगों के लिए अन्य कोई व्यवस्था नहीं है….
हमें भूख नहीं लगती है क्या??
हम भी आपके. धार्मिक_मजदूर ही तो हैं
हम उद्विग्न हो उठे……
अपने परिवार को कोरोना से सुरक्षित रखने की चिंताओं के बीच इनकी तो कोई चिंता ही हमें नहीं थी..
हमने उन्हें शाब्दिक_सान्त्वना देते हुये…
घर के अंदर आने का आग्रह किया…
सूखे कपोलों में ढलके आँसू पोंछते हुये पंडितजी ने स्वल्पाहार लेने से मना कर दिया..बोले
घर में सब भूखे_बैठे हैं,,,,मैं कैसे_खा लूँ ?
हमने तत्काल मोहल्ले की परचून के दूकानदार को फोन कर महीने भर का राशन पुजारी जी के यहांँ पहुँचाने का आग्रह किया तो पुजारी जी संतुष्ट हुये..
हजारों आशीष देते हुये बार बार पीछे मुड़ मुड़कर हमें कृतज्ञ नेत्रों से देखते पुजारीजी वापस जा रहे थे
अपने धर्म वाहकों का भी ध्यान रखें…सड़क चलते राहगीरों से हाथ फैलाकर भिक्षा माँगने के लिए इन्हें विवश न करें
मदरसों के मौलवियों की तरह कोई सरकार इन्हें वेतन नहीं देती।
हमारे आपके आश्रय से इनका परिवार भी पलता है
( जतीन दुआ )