.
मैं धर्म को जीने की कला कहता हूं
धर्म कोई पूजा-पाठ नहीं है
धर्म का मंदिर और मस्जिद से कुछ लेना-देना नहीं है
धर्म तो है जीवन की कला
जीवन को ऐसे जीया जा सकता है –
ऐसे कलात्मक ढंग से,
ऐसे प्रसादपूर्ण ढंग से –
कि तुम्हारे जीवन में हजार पंखुरियों वाला कमल खिले,
कि तुम्हारे जीवन में समाधि लगे,
कि तुम्हारे जीवन में भी ऐसे गीत उठे जैसे कोयल के,
कि तुम्हारे भीतर भी हृदय में ऐसी-ऐसी भाव-भंगिमाएँ जगें,
जो भाव-भंगिमाएँ प्रकट हो जाएँ तो उपनिषद बनते है,
जो भाव-भंगिमाएँ अगर प्रकट हो जाएँ
तो मीराँ का नृत्य पेदा होता है, चैतन्य के भजन बनते है
.
( ओशो )