वे भी होती हैं कविताएँ-पूर्णिमा वर्मन

वे भी होती हैं कविताएँ
जो कहीं छपती नहीं
जिन्हें कोई नहीं पढ़ता

मोरपंख के साथ सोती हुई नोटबुक में
कभी कभी झाँकती हैं
पन्ने खुलने पर
घुल जाती हैं
मन की संवेदनाओं में गहरे

वे जीने की
वजह बनती हैं
संतोष के छप्पर रखते हुए हौले
वे रचनाकार को
मिट्टी होने से बचाती हैं
डायरी के आँगन में, पन्नों के चाक पर
उसकी मिट्टी को आकार देते हुए

( पूर्णिमा वर्मन )

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