दीवार में एक खिड़की रहती थी – डॉ. उर्वशी

(आज जब विनोद कुमार शुक्ल हमारे बीच भौतिक रूप में नहीं हैं, तब यह उपन्यास और भी गहरे अर्थों में हमें स्पर्श करता है। ऐसा लगता है जैसे वे स्वयं किसी दीवार के पार चले गए हों, लेकिन अपने शब्दों की खिड़कियाँ हमारे लिए खुली छोड़ गए हों।

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विनोद कुमार शुक्ल की रचनाएँ हमें यह सिखाती हैं कि मनुष्य का सबसे बड़ा प्रतिरोध उसका कोमल बने रहना है, और सबसे बड़ा साहस—साधारण होना। उन्होंने हिंदी साहित्य को शोर से नहीं, मौन से समृद्ध किया; गति से नहीं, ठहराव से अर्थ दिया।

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उनकी मृत्यु एक लेखक का जाना नहीं है, बल्कि उस दृष्टि का ओझल होना है, जो दीवारों में भी खिड़कियाँ खोज लेती थी।

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पर साहित्य का यह नियम अटल है—जो लेखक खिड़कियाँ बनाता है, वह कभी पूरी तरह जाता नहीं।
विनोद कुमार शुक्ल को नमन।

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उनकी रचनाओं की खिड़कियों से आती रोशनी हमारे समय को देर तक आलोकित करती रहे।)

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कभी-कभी साहित्य में एक ऐसी खिड़की खुल जाती है, जिससे रोशनी केवल बाहर नहीं, भीतर भी गिरती है—मनुष्य के अस्तित्व, उसकी चुप्पियों, उसके छोटे-छोटे सुखों और दुखों पर। ऐसे ही क्षणों में साहित्य केवल पाठ नहीं रहता, वह आत्मानुभूति बन जाता है।

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डॉ. रविभूषण का यह कथन सहज ही स्मरण में आता है कि—“जीवन में दरवाज़ों से ज़्यादा खिड़कियों का महत्व होता है।”

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दरवाज़े भीतर-बाहर के रास्ते दिखाते हैं, पर खिड़कियाँ देखने की दृष्टि देती हैं—बंद कमरों में भी उजाले और हवा का बोध कराती हैं। दरवाज़े स्थूल हैं, खिड़कियाँ सूक्ष्म—वे हमें भीतर से बाहर और बाहर से भीतर देखने का विवेक देती हैं।

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विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ इसी सूक्ष्म दृष्टि का दस्तावेज़ है। यहाँ दीवारें जीवन की सीमाएँ हैं, लेकिन उन्हीं दीवारों में खुली खिड़कियाँ मनुष्य के भीतर बची हुई मानवीय रोशनी की गवाही देती हैं।

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यह उपन्यास किसी पारंपरिक कथा की तरह नहीं, बल्कि धीरे-धीरे जलते दीपक की तरह फैलता है—न घोषणाओं में, न वैचारिक नारेबाज़ी में, बल्कि उन असंख्य सांसों में जिनसे साधारण मनुष्य अपना दिन काटता है और जीवन रचता है।

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विनोद कुमार शुक्ल हिंदी कथा-साहित्य के उन विरल रचनाकारों में हैं, जिन्होंने यह सिद्ध किया कि साधारण मनुष्य के जीवन में ही सबसे बड़ा रहस्य और सबसे सुंदर कविता छिपी होती है। उनका यह उपन्यास किसी रहस्य का दरवाज़ा नहीं खोलता, बल्कि एक खिड़की खोलता है—धीरे, निस्पृह, लगभग ध्यान की अवस्था में।

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उपन्यास के केंद्र में हैं रघुवर प्रसाद और सोनसी—निम्न-मध्यवर्गीय दंपति। उनके जीवन में कोई असाधारण घटना नहीं घटती, फिर भी उनका अस्तित्व असाधारण बन जाता है। रघुवर प्रसाद गणित पढ़ाते हैं, लेकिन जीवन के जटिल समीकरणों को हल नहीं कर पाते। सोनसी गृहस्थ जीवन के भीतर वह कोमल ऊर्जा है, जो संसार को चलाती है।

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उनके छोटे से कमरे की दीवार में बनी एक खिड़की केवल वास्तु का हिस्सा नहीं, बल्कि स्वप्न और यथार्थ के बीच खुला एक जादुई मार्ग है। उस पार नदी, पहाड़, चिड़ियाँ और पेड़ों की छाँव है—जहाँ जाकर मनुष्य अपने भीतर की थकान उतार देता है। यह खिड़की दरअसल अंतर्जगत का प्रतीक है—जहाँ से मनुष्य अपने भीतर उतरता है और दुनिया को नई दृष्टि से देखना सीखता है।

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‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का शिल्प रैखिक नहीं है; यह क्षणों, स्मृतियों और संवेदनाओं की परतों से निर्मित है। विनोद कुमार शुक्ल पारंपरिक कथा-गठन से आगे बढ़कर एक कवितामय गद्य-संरचना रचते हैं, जहाँ घटनाएँ नहीं, अनुभूतियाँ कथा बनती हैं।

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कॉलेज जाना, साइकिल का गायब होना, साधु का हाथी के साथ गुज़रना—ये सब घटनाएँ कम और प्रतीक अधिक हैं। यह हमारे समय, समाज और व्यक्ति के मनोविज्ञान के सूक्ष्म प्रतिबिंब हैं। उपन्यास का शिल्प एक सुरभित ध्यान की तरह है—जहाँ हर दृश्य धीरे-धीरे खुलता है, हर संवाद का अपना मौन है, और हर मौन के भीतर एक गहरी लय स्पंदित है।

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भाषा यहाँ अलंकारों से नहीं, बल्कि ईमानदारी और पारदर्शिता से चमकती है। घरेलू बोली, आत्मसंवाद, औपचारिक संवाद और निजी बातचीत—इन सभी की भिन्न लयों ने इस उपन्यास को बहुभाषिक यथार्थ का रूप दिया है। यह भाषा बताती है कि साहित्य का सबसे गहरा संगीत उसी में बसता है जो सबसे सादा है।

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दीवार और खिड़की का प्रतीक इस उपन्यास की आत्मा है। दीवार समाज की कठोरता, सीमाओं और ठोस यथार्थ की प्रतीक है, जबकि खिड़की उस दीवार में खुली उम्मीद—एक ऐसी दरार, जिससे प्रेम, स्वप्न और स्वतंत्रता की हवा भीतर आती है।

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रघुवर प्रसाद और सोनसी का प्रेम इस उपन्यास का सबसे मृदुल और मार्मिक पक्ष है। बिना किसी नाटकीयता के, साधारण दिनों के भीतर बहता हुआ प्रेम—साझी थकान, साझा रोटी और साझा नींद में जीवित रहता हुआ। यह प्रेम न शरीर से बचता है, न उसमें डूबता है—वह आँखों और मौन के बीच पनपता है।

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( डॉ. उर्वशी )

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