मुंह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन
आवाजों के बाजारों में खामोशी पहचाने कौन
सदियों-सदियों वही तमाशा रस्ता-रस्ता लम्बी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं खो जाता है जाने कौन
जाने क्या-क्या बोल रहा था सरहद, प्यार, किताबें, खून
कल मेरी नींदों में छुपकर जाग रहा था जाने कौन
में उसकी परछाई हूँ या वो मेरा आईना है
मेरे ही घर में रहता है मेरे जैसा जाने कौन
किरन-किरन अलसाता सूरज पलक-पलक खुलती नींदे
धीमे-धीमे बिखर रहा है जर्रा-जर्रा जाने कौन
( निदा फाजली )
“सदियों-सदियों वही तमाशा रस्ता-रस्ता लम्बी खोज
लेकिन जब हम मिल जाते हैं खो जाता है जाने कौन
जाने क्या-क्या बोल रहा था सरहद, प्यार, किताबें, खून
कल मेरी नींदों में छुपकर जाग रहा था जाने कौन”
Wonderful.. amazing….
Awesome poem……
हीनाजी, बहोत खुब गझल रक्खी आपने, याद आ जाती है गायीकी जगजीतजीकी…
सच बात है लोग भीतरका दर्द नहि जानते और जानते ही हो जाते नौ दो ग्यारह…
निदाजी कि पहली गझल पढी बहोत ही अच्छी लिखी है..मुबारक..
सपना
હિનાબેન, નૂતન વર્ષાભિનંદન. આજના દિવસે આ સુંદર રચનાએ આનંદમાં વધારો કરી દીધો.