अँधेरे में बुद्ध-गगन गिल

अँधेरे में बुद्ध

अपनी प्रतिमा से निकलते हैं

.

अपनी काया से निकलते हैं

अपने स्तूप से निकलते हैं

अस्थि-पुंज से निकलते हैं

.

अँधेरे में बुद्ध

परिक्रमा करते हैं

माया की

मोक्ष की

पृथ्वी की

.

काँटे की नोंक पर

ठिठकते हैं

अँधेरे में बुद्ध

.

दुख उनके लिए है

जो उसे मानते हैं

दुख उनके लिए भी है

जो उसे नहीं मानते हैं

.

सिर नवाते हैं

अँधेरे में बुद्ध

.

अगरबत्ती जलाते हैं

सामने उसके

जो है

जो नहीं है

.

एक मुद्रा से दूसरी मुद्रा तक

एक प्रतिमा से दूसरी प्रतिमा तक

अँधेरे में बुद्ध

अपनी जगह बदलते हैं

जैसे उनकी नहीं

दुख की जगह हो

.

( गगन गिल )

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