बेघर हुए हैं ख्वाब धमाकों के साथ-साथ
बहशत भी जिंदा रहती है साँसों के साथ-साथ
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जब रौशनी से दूर हूँ कैसी शिकायतें
अब उम्र कट रही है अँधेरों के साथ-साथ
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दरिया को कैसे पार करेगा वो एक शख्श
जिसने सफर किया है किनारों के साथ-साथ
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वीरान शहर हो गया जब से गया है तू
हालांकि रह रहा हूँ हजारों के साथ-साथ
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पत्ता शजर से टूट के दरिया में जो गिरा
आवारा वो भी हो गया मौजों के साथ-साथ
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मुद्त हुई की नींद चुरा ले गया कोई
कटती है अब तो रात सितारों के साथ-साथ
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तन्हाइयों के दौर में तन्हा नहीं रह
‘सूरज’ सफर में तिरी यादों के साथ-साथ
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( डॉ. सूर्या बाली ‘सूरज’ )