ये साँझ सपाट सही
ज्यादा अपनी है
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तुम जैसी नहीं
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इसने तो फिर भी छुआ है
भावहीन पडे जल को तरंगित किया है
बार-बार जिन्दा रखा है
सिन्दूरी आभा के गर्वीले मान को
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कितने निर्लिप्त कितने विकल कितने न-जाने-से तुम !
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किसने कहा मुठ्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?
लगातार रीतते जाने के अहसास को
इतनी शिद्त से भला और कौन जीता है !
तुमने थामा.. ठीक
खोला भी ? .. कभी ?
मैं मुठ्ठी होती रही लगातार
गुमती हुई खुद में…
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कठोर !
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( सौरभ पाण्डेय )