सूरज से… – सौरभ पाण्डेय

ये साँझ सपाट सही

ज्यादा अपनी है

 .

तुम जैसी नहीं

 .

इसने तो फिर भी छुआ है

भावहीन पडे जल को तरंगित किया है

बार-बार जिन्दा रखा है

सिन्दूरी आभा के गर्वीले मान को

 .

कितने निर्लिप्त कितने विकल कितने न-जाने-से तुम !

 .

किसने कहा मुठ्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?

लगातार रीतते जाने के अहसास को

इतनी शिद्त से भला और कौन जीता है !

तुमने थामा.. ठीक

खोला भी ? .. कभी ?

मैं मुठ्ठी होती रही लगातार

गुमती हुई खुद में…

 .

कठोर !

 .

( सौरभ पाण्डेय )

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