चार दीवारों में रेह कर तुमने घर देखे नहीं,
मैंने अपने घर में छत, दीवारो-दर देखे नहीं.
यूं दरख्तों पर नजर पडते ही पागल हो गई,
जैसे आंधीने भी पहेले शजर देखे नहीं.
क्यूं सुनाते हो उन्हें केहरे-कफस की दास्तां,
जिन परिन्दोने अभी तो बालो-पर देखे नहीं.
उम्रभर का साथ तो अब सोचना भी है फुजुल,
ख्वाब जैसे ख्बाब भी अब रात भर देखे नहीं.
एक मोहलत बस, कि दिल से गुफ्तगू कर लूं जरा,
तुम खलील उन से कहो, दो पल ईधर देखे नहीं.
( खलील धनतेजवी )
[ दरख्तों-વૃક્ષો, शजर-વૃક્ષ, केहरे-कफस की-પિંજરની યાતના, बालो-पर-પીંછા-પાંખ ]