कभी हंसा के गया, फिर कभी रुला के गया,
गरज कि मुजको वो हर रुख से आजमा के गया.
मैं अपने मूंह से बडी बात तो नहीं करता,
यहां का जिल्लेइलाही भी घर पे आ के गया.
गजब तो ये कि उजालों की सल्तनत वाला,
मेरे चिराग से अपना दिया जला के गया.
जिसे बुला के अदब से बिठाया महेफिल में,
हमारे बीच बडे फित्ने वो जगा के गया.
खलील, आज वो हर शख्स याद आता है,
जो हम से पहेले यहां मेहफिलें सजा के गया.
( खलील धनतेजवी )