रात के साढ़े तीन बजे हैं-शिवांगी गोयल

रात के साढ़े तीन बजे हैं
जाने कैसी सोच में गुम हूँ
कितनी रीलें देख चुकी हूँ
मन फिर भी तो बुझा हुआ है
जीत गई या हार रही हूँ
अब तक कोई खबर नहीं है
अम्मा-बाबा जगे हुए हैं, हैराँ से हैं
भाई मुझसे लिपट गया था
रो उट्‌ठा था
उसके आँसू याद आ रहे
उसकी बेचैनी भी मेरे पोर-पोर में जाग उठी है
सब अन्दर से टूट गया है

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तुम पूछोगे किसने तोड़ा
एक नाम ले पाऊँगी क्या ?
मेरी आँखें आसमान के उस तारे को देख रही हैं
तुम भी देखो
देखो मेरे नानाजी हैं तारा बनकर
बोल रहे हैं मुझसे लोगों की मत सुनना
उम्र, पढ़ाई, नाम, पदक – सब बेमानी है
लोग कहेंगे चुप रहना, सब सह लेना
लोगों की परिभाषाएँ सब बेमानी है

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दरवाज़े पर खटके से दिल काँप गया है
छुपकर देखा – कोई नहीं है-बेचैनी है
रात अँधेरी, कोई नहीं है, बेचैनी है
नींद कहाँ है?
शायद बिस्तर के नीचे है, झुककर देखें?
डर लगता है – किससे लेकिन?
एक नाम ले पाऊँगी क्या? सख़्त मनाही है

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डरना हो तो डर सकती हो लेकिन सख़्त मनाही है
न! तुम कोई नाम न लेना!
रोते-रोते मर जाना पर – नाम न लेना
बड़े लोग हैं, बड़े नाम हैं
कल की लड़की – कौन हो तुम?
तुम्हें कौन सुनेगा?

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रात समेटो, नींद उठाओ
ठीक तो हो तुम; ठीक नहीं क्या?
क्या पागलपन रोना-धोना
मुँह पर कस के पट्टी बाँधो
चुप – सो जाओ!

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( शिवांगी गोयल )

गीत गाते हुए लोग-पार्वती तिर्की

गीत गाते हुए लोग

कभी भीड़ का हिस्सा नहीं हुए

धर्म की ध्वजा उठाए लोगों ने

जब देखा

गीत गाते लोगों को

वे खोजने लगे उनका धर्म

उनकी ध्वजा

अपनी खोज में नाकाम होकर

उन्होंने उन लोगों को जंगली कहा

वे समझ नहीं पाए

कि मनुष्य जंगल का हिस्सा है

जंगली समझे जाने वाले लोगों ने

कभी अपना प्रतिपक्ष नहीं रखा

वे गीत गाते रहे

और कभी भीड़ का हिस्सा नहीं बने।

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( पार्वती तिर्की )

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|| ગીત ગાતા લોકો ||
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ગીત ગાતા લોકો
ક્યારેય ભીડનો હિસ્સો બન્યાં નહીં
ધર્મની ધજાવાળા લોકોએ
જ્યારે જોયાં
ગીત ગાતા લોકોને
એ લોકો શોધવા લાગ્યા એમનો ધર્મ
એમની ધજા
પોતાની શોધમાં નિષ્ફળ ગયા પછી
એમણે એ લોકોને જંગલી કહ્યા
એમને એ સમજાયું નહીં
કે મનુષ્ય જંગલનો જ હિસ્સો છે
જંગલી કહેવાયેલા લોકોએ
ક્યારેય પોતાનો પ્રતિપક્ષ રજૂ ન કર્યો
એ લોકો ગીત ગાતા રહ્યા
અને ક્યારેય ભીડનો હિસ્સો ન બન્યા..
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( પાર્વતી તિર્કી )
– હિન્દી પરથી અનુવાદ : ભગવાન થાવરાણી

फिर उगना-डॉ. पार्वती तिर्की

 

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झारखंड की आदिवासी बेटी डॉ. पार्वती तिर्की ने रचा साहित्य का इतिहास!

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झारखंड के गुमला ज़िले से आने वाली डॉ. पार्वती तिर्की को उनके पहले ही कविता संग्रह ‘फिर उगना’ के लिए मिला है साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार 2025 — यह सिर्फ एक पुरस्कार नहीं, बल्कि उस आवाज़ का सम्मान है जो आज भी जंगलों, गांवों, लोकगीतों और मिट्टी से जुड़ी हुई है।

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उनकी कविताओं में आदिवासी संस्कृति का संघर्ष, प्रकृति के साथ तादात्म्य, और आधुनिक जीवन की हलचल के बीच लोक जीवन की जिजीविषा को बेहद सहज, सरल भाषा में सामने लाया गया है।

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गुमला के एक नवोदय विद्यालय से पढ़ाई शुरू कर उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में स्नातक और परास्नातक की पढ़ाई की। फिर वहीं से उन्होंने आदिवासी समुदाय की संस्कृति और गीतों पर पीएचडी की डिग्री प्राप्त की। वे आज रांची विश्वविद्यालय के राम लखन सिंह यादव कॉलेज में सहायक प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं।

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उनका पहला कविता-संग्रह ‘फिर उगना’ वर्ष 2023 में राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। इस संग्रह को हिन्दी की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और समीक्षकों ने नई आवाज़ और ज़रूरी हस्तक्षेप माना है।

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पार्वती कहती हैं —

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“मैंने कविताओं के ज़रिए संवाद की कोशिश की है। विविध जनसंस्कृतियों के बीच समझ और विश्वास बने — यही मेरी कोशिश रही है। इस सम्मान से मेरा आत्मविश्वास बढ़ा है।”

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यह सम्मान न सिर्फ पार्वती का है, बल्कि उन सभी युवाओं का है जो ग्रामीण या आदिवासी पृष्ठभूमि से आते हुए भी, अपनी भाषा, अपनी मिट्टी और अपनी संस्कृति से जुड़े रहकर नए साहित्य की दुनिया बना रहे हैं।

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राजकमल प्रकाशन के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी ने इस उपलब्धि पर कहा —

“पार्वती का लेखन दिखाता है कि परंपरा और आधुनिकता साथ-साथ जी सकती हैं। हिन्दी कविता का भविष्य अब सिर्फ शहरों में नहीं, गांवों और लोक जीवन में भी आकार ले रहा है।”

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‘फिर उगना’ — एक नई भाषा, नई संवेदना और नई उम्मीद का नाम है।

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डॉ. पार्वती तिर्की को बहोत बहोत बधाई ।

इक जोड़ा कश्मीर गया था-मन मीत

 

इक जोड़ा कश्मीर गया था

उसमें से बस पत्नी लौटी !

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घूम रहे थे घाटी घाटी

तैर रहे थे झील में पंछी

हाथ में पंछी आंख में पंछी

आकाशों के नील में पंछी

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नाव चली थी मद्धिम मद्धिम

और बुलबुले प्रिज्म हुए थे

उन दोनों में प्यार हुआ था

उन दोनों ने हाथ छुए थे

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साजन को पंछी चुग बैठे

बदली से बस सजनी लौटी !

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इक जोड़ा कश्मीर गया था

उसमें से बस पत्नी लौटी !

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कहवे से उठती भापों से

दो लोगों ने चित्र बनाया

अनजाने अपने लोगों को

दो लोगों ने मित्र बनाया

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कुल्फी खाई दूध जलेबी

पुचके खाए पानी वाले

उन दोनों का जुर्म यही था

उन दोनों ने सपने पाले

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दिन को लूट गई संध्याएं

लुटी पिटी – सी रजनी लौटी !

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इक जोड़ा कश्मीर गया था

उसमें से बस पत्नी लौटी !

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बर्फ़ घाटियां श्वेत वसन की

बुझती थी जब प्यास बदन की

लेकिन कैसा विकट समय है

चाट गईं बंदूक अगन की

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इक मज़हब का राक्षस सपना

लील गया मंदिर के दीये को

भूल गए जो भी साझा था

भूल गए सब लिए दिए को

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सांपों को था दूध पिलाया

हम तक अपनी करनी लौटी !

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इक जोड़ा कश्मीर गया था

उसमें से बस पत्नी लौटी !

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दो सांसों का मेला उजड़ा

यह वीरानी किसके सर है?

मेरे घर का कब्ज़ा छोड़ो

ये मेरा पुश्तैनी घर है!

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तुम कश्मीरी धरती छोड़ो

सारा हिंदुस्तान हमारा

अल्लामा इक़बाल को छोड़ो

चीन ओ’ पाकिस्तान हमारा

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गठजोड़े में आग लग गई

बिना अंगूठी मंगनी लौटी !

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इक जोड़ा कश्मीर गया था

उसमें से बस पत्नी लौटी !

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( मन मीत )

अब कुछ नहीं कहना-मन मीत

अब कुछ नहीं कहना
दिमाग़ सुन्न पड़ चुका है
और मेरी दो अंगुलियों और अंगूठे का ख़तना हो चुका है
जिनसे मैं कलम पकड़ता हूँ
नहीं !
मैं नरेंद्र मोदी को नहीं जानता
मैं अमित शाह को भी नहीं जानता
मैं ममता बैनर्जी को भी नहीं जानता
लेकिन मैं उन करोड़ों लोगों को जानता हूँ
जो अग्नि पूजक यानी हिन्दू कहलाते हैं
लेकिन आज जब घर में आग लगी है
तो वे चुल्लू भर पानी में डूब कर मर चुके हैं
अकेला किस किस से लडूंगा मैं
अगर आज कोई मेरा धर्म परिवर्तन करवाना चाहे
तो मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है
कि मैं खौलते हुए तेल में बैठ जाऊं
या अपनी ज़िंदा चमड़ी खींचने दूं
या दीवार में चुनवा दिया जाऊं तो डरकर अल्लाह हू अकबर नहीं कहूं
मेरे ऋषि मुनि मर गए हैं
मेरी लड़ाका जातियां शराब और कबाब और शबाब में डूबी हैं
मेरे नागा साधु हिमालय में छिपे बैठे हैं
मेरी चुनी हुई सरकार ईदी बांट रही है
यह छोटा सा धड़कता हुआ दिल
अब मेरे काबू में नहीं है
मैं इसे भगत सिंह बनकर
लोकसभा के ख़ाली इलाके में बम की तरह फोड़ देना चाहता हूँ
लेकिन मुझे डर है
इससे मेरे परिवार को भयानक यातना सहनी होगी
कोई नहीं है मेरे साथ
मेरे साथ मेरा देश नहीं है
एक भी आदमी नहीं है मेरे साथ
भगवा झंडा लहराते हुए कायरों को मैं
आदमियों की श्रेणी में नहीं रखता
मैं
एक गड्ढा खोदना चाहता हूँ
और उसमें जीवित समाधि ले लेना चाहता हूँ
लेकिन उसमें भी एक पेंच है श्रीमान –
कहीं वह वक़्फ़ की ज़मीन हुई तो ?
अभी कुछ दिनों पहले
मैं रामदेवरा (रुणिचा) यानी बीकानेर बाबा रामदेव के यहां सर झुकाने गया था
वहां एक तलवार बेचने वाले के पास जैसे ही मैं ठहरा
मेरे रिश्तेदार ने मुझे टोक दिया :
“जब सरकार अपनी है तो तलवार की ज़रूरत ही क्या है ?”
कितना विश्वास था मेरे रिश्तेदार की आंखों में
और आज मैं उस विश्वास को अपनी आंखों से टूटता हुआ देख रहा हूँ !
मैं जानता हूँ
यह कविता लंबी हो गई है
मैं जानता हूँ
यह कविता है ही नहीं
लेकिन कविता तो कुमार अंबुज भी लिखता है और आलोक धन्वा और विष्णु नागर और अविनाश मिश्र भी
जब कवियों के नाम पर इतना कूड़ा पहले से जमा है
तो मैं नया कूड़ा क्यों जमा करूं ?
क्षमा श्रीमान क्षमा !
लेकिन मैं फिर से उसी बात पर आता हूँ
और चीख-चीख कर कहता हूँ
अब कुछ नहीं कहना
दिमाग़ सुन्न पड़ चुका है
और मेरी दो अंगुलियों और अंगूठे का खतना हो चुका है
जिनसे मैं कलम पकड़ता हूँ !
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( मन मीत )

लड़के हमेशा खड़े रहे-सुनीता करोथवाल

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लड़के हमेशा खड़े रहे
खड़ा रहना उनकी कोई मजबूरी नहीं रही
बस उन्हें कहा गया हर बार
चलो तुम तो लड़के हो खड़े हो आओ
तुम मलंगों का कुछ नहीं बिगड़ने वाला
छोटी-छोटी बातों पर वे खड़े रहे कक्षा के बाहर
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स्कूल विदाई पर जब ली गई ग्रुप फोटो
लड़कियाँ हमेशा आगे बैठी
और लड़के बगल में हाथ दिए पीछे खड़े रहे
वे तस्वीरों में आज तक खड़े हैं
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कॉलेज के बाहर खड़े होकर
करते रहे किसी लड़की का इंतजार
या किसी घर के बाहर घंटों खड़े रहे
एक झलक,एक हाँ के लिए
अपने आपको आधा छोड़
वे आज भी वहीं रह गए हैं।
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बहन-बेटी की शादी में खड़े रहे मंडप के बाहर
बारात का स्वागत करने के लिए
खड़े रहे रात भर हलवाई के पास
कभी भाजी में कोई कमी ना रहे
खड़े रहे खाने की स्टाल के साथ
कोई स्वाद कहीं खत्म न हो जाए
खड़े रहे विदाई तक दरवाजे के सहारे
और टैंट के अंतिम पाईप के उखड़ जाने तक
बेटियाँ-बहनें जब तक वापिस लौटेंगी
वे खड़े ही मिलेंगे।
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वे खड़े रहे पत्नी को सीट पर बैठाकर
बस या ट्रेन की खिड़की थाम कर
वे खड़े रहे बहन के साथ घर के काम में
कोई भारी सामान थामकर
वे खड़े रहे माँ के ऑपरेशन के समय
ओ. टी. के बाहर घंटों
वे खड़े रहे पिता की मौत पर अंतिम लकड़ी के जल जाने तक
वे खड़े रहे दिसंबर में भी
अस्थियाँ बहाते हुए गंगा के बर्फ से पानी में
लड़कों रीढ़ तो तुम्हारी पीठ में भी है
क्या यह अकड़ती नहीं?

( सुनीता करोथवाल )

દીકરાઓ હંમેશા ઊભા રહ્યા
ઊભા રહેવું એમની કોઈ મજબૂરી નથી
બસ એમને કહેવામાં આવ્યું.. હંમેશા
ચાલો તમે તો છોકરાઓ છો ઊભા રહી જાવ
તમે જડસુઓનું કંઈ બગડી જવાનું નથી
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નાનીનાની વાતોમાં એ વર્ગની બહાર ઊભા રહ્યા
શાળા વિદાય સમારંભનો જ્યારે ફોટો લેવામાં આવ્યો
છોકરીઓ હંમેશા આગળ બેઠી
અને છોકરાઓ અદબ વાળીને પાછળ ઊભા રહ્યા
તેઓ ફોટોમાં આજ સુધી ઊભા રહ્યા
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કોલેજની બહાર ઊભા રહીને
જોતા રહ્યા કોઈ છોકરીની રાહ
અથવા કોઈ ઘરની સામે કલાકો ઊભા રહ્યા
એક ઝલક, એક હા માટે
તેઓની અડધી જાત આજેય ત્યાં જ રહી ગઈ છે.
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બહેન-દીકરીનાં લગ્નમાં ઊભા રહ્યા મંડપની બહાર
જાનનું સ્વાગત કરવા માટે
ઊભા રહ્યા આખી રાત કંદોઈ પાસે
ક્યારેય કોઈ શાક ઓછું ન પડે
ઊભા રહ્યા ખાવાનાં મેજ પાસે
ક્યાંક કોઈ વ્યંજન ખતમ ન થઈ જાય
ઊભા રહ્યા વિદાય સુધી દરવાજાના ટેકે
અને મંડપનો છેલ્લો સ્તંભ સંકેલી લેવામાં આવે ત્યાં સુધી
બહેન-દીકરીઓ જ્યારે પગફેરે આવશે
તેઓ ત્યાં ઊભેલા જ હશે.
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તેઓ ઊભા રહ્યા પત્નિને સીટ પર બેસાડીને
બસ કે ટ્રેનની બારી પકડીને
તેઓ ઊભા રહ્યા બહેનની સાથે ઘરનાં કામમાં કોઈ વજનદાર વસ્તુ ઊંચકીને
તેઓ ઊભા રહ્યા માના ઓપરેશનના સમયે
ઓ. ટી.ની બહાર કલાકો
તેઓ ઊભા રહ્યા પિતાનાં મૃત્યુ વખતે છેલ્લું લાકડું બળી જાય ત્યાં સુધી
તેઓ ઊભા રહ્યા ડિસેમ્બરમાં પણ
ગંગાનાં બરફીલા પાણીમાં અસ્થિઓ વહાવતા
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દીકરાઓ,
બરડો તો તમારી પીઠમાંય છે
શું એ ઝકડાઈ જતો નથી ?
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( સુનીતા કરોથવાલ, અનુ. નેહા પુરોહિત )

 

वे पुरानी औरतें-सुनीता करोथवाल

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जाने कहाँ मर-खप गई वे पुरानी औरतें

जो छुपाए रखती थी नवजात को सवा महीने तक

घर की चार दीवारी में।

नहीं पड़ने देती थी परछाई किसी की

रखती थी नून राई बांध कर जच्चा के सिरहाने

बेल से बींधती थी चारपाई

रखती थी सिरहाने पानी का लोटा,

सेर अनाज

दरवाजे पर सुलगाती थी हारी दिन-रात।

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कोई मिलने भी आता तो झड़कवाती थी आग पर कपड़े

और बैठाती थी थोड़ा दूर जच्चा-बच्चा से

फूकती थी राई, आजवाइन, गुगल सांझ होते ही

नहीं निकलती देती थी घर से गैर बखत किसी को।

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घिसती थी जायफल हरड़ बच्चे के पेट की तासीर माप कर

पिलाती थी घुट्टी

और जच्चा को देती थी घी आजवाइन में गूंथ कर रोटियाँ।

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छ दिन तक रखती थी दादा की धोती में लपेटकर बच्चे को

फिर छठी मनाती थी

बनाती थी काजल कचळौटी में

बांधती थी गले में राईलाल धागे से

पहनाती थी कौड़ी पैर में

पगथलियों पर काला टीका लगा

लटकाती थी गले में चाँद सूरज

बाहर की हर अला-बला से बचाती थी

कहती थी कच्ची लहू की बूंद है अभी ये

ओट में लुगड़ी की दूध पिलाती थी।

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घर से बाहर निकल कर देखो पुरानी औरतो

प्रदर्शनी लगी है दूध मुंहे बच्चों की सोशल मीडिया पर।

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कोई नजर का टीका

कोई नज़रिया बचा हो तो बाँध दो इन्हें

वरना झूल रहे हैं ये बाज़ार की गोद मे

लोगों के सैकड़ों कमेंट्स और लाइक्स के चक्कर में ।

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( सुनीता करोथवाल )

 

 

अँधेरे में बुद्ध-गगन गिल

अँधेरे में बुद्ध

अपनी प्रतिमा से निकलते हैं

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अपनी काया से निकलते हैं

अपने स्तूप से निकलते हैं

अस्थि-पुंज से निकलते हैं

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अँधेरे में बुद्ध

परिक्रमा करते हैं

माया की

मोक्ष की

पृथ्वी की

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काँटे की नोंक पर

ठिठकते हैं

अँधेरे में बुद्ध

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दुख उनके लिए है

जो उसे मानते हैं

दुख उनके लिए भी है

जो उसे नहीं मानते हैं

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सिर नवाते हैं

अँधेरे में बुद्ध

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अगरबत्ती जलाते हैं

सामने उसके

जो है

जो नहीं है

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एक मुद्रा से दूसरी मुद्रा तक

एक प्रतिमा से दूसरी प्रतिमा तक

अँधेरे में बुद्ध

अपनी जगह बदलते हैं

जैसे उनकी नहीं

दुख की जगह हो

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( गगन गिल )

રાત આખી-ગગન ગિલ

તોફાની રાત હશે અને પ્રેમ ઠોકશે તારા હૃદયનો દરવાજો.

તોફાની રાત હશે અને પ્રેમ બોલાવશે તને

હવાની પેલે બાજુથી. તોફાની રાત હશે અને પ્રેમ કૂદી પડશે

બારીની બહાર. રાત આખી તને ઊંઘમાં દેખાશે એના માથા

પરનો ઘા જ્યારે પ્રેમ પલળતો હશે તારા દરવાજાની બહાર,

પોતાના જ લોહીમાં.

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સવારે તું આવીશ તારા ઓરડાની બહાર.

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ક્યાંય નહીં હોય પ્રેમ. નહીં હોય વૃક્ષ દાડમનું.

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( ગગન ગિલ, અનુવાદ : કુશળ રાજેશ્રી-બીપીન ખંધાર)

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મૂળ ભાષા : હિન્દી

गुम हो गई एक चिठ्ठी-गोपाल सहर

कोई नहीं है कहीं मुन्तज़िर !

एक वो चिठ्ठी ही गुम नहीं हुई हैं।
बहुत कुछ गुम हो गया है चिठ्ठी के साथ-साथ।
ढूंढ़ता हूं यहां-वहां।
कुछ भी हाथ में नहीं आता है।
स्याही, कलम कहाँ चले गये हैं।
आंसू … झील-आँखें सूख गयी हैं….
पत्थर फेंकू….धूल उड़ेगी थोड़ी सी और बैठ जायेगी फिर से..
अब कोई बवण्डर भी नहीं उठता है हमारे अंदर।
सब जगह् राजनीति..
कदम दर कदम राजनीति….

( गोपाल सहर )