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झरोखे में बैठा उदास कबूतर
भीगी पलकों से
कभी बाहर झाँकता है, कभी भीतर झाँकता है.
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वह देख रहा है
कि भीतर की दुनिया उजाड दी गयी है
अब यह महल खण्डहर है, सुनसान है
और बाहर की दुनिया बस-बस कर भी उजड रही है
क्योंकि नींव खोखली है और आदमी बेजान है
पुराना मकान ढह रहा है, नया बन नहीं रहा है
ईस लिए ईन दो खम्भों के बीच
लटकते हुए तारों पर ही अपनी जिन्दगी बिताने को
वह कभी ईधर झाँकता है, कभी उधर झाँकता है.
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वह सोच रहा है
कि आदमियत वह चीज है
जो उजडे हुए को बसाना जानती है
और जो रास्ता भूलकर भटक गये हैं
उन्हें सीधी-सी पगडण्डी बताना अपना फर्ज मानती है
लेकिन आज जो आदमी है
वह आदमियत नहीं चाहता
खुद तो उजडा हुआ है ही
औरों को बसता हुआ भी देखना नहीं चाहता.
धरती खिसकती जा रही है, आकाश भागा जा रहा है,
वह बेचारा सहारे की टोह में
कभी नीचे झाँकता है, कभी उपर झाँकता है.
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शायद वह अपने नभलोक को छोड कर
आज मन ही मन पछता रहा है
और ईस आदम की डरावनी शक्लें देख कर
अपना घायल शरीर ढीला किये सुस्ता रहा है
पर वह उड नहीं सकता; क्योंकि यह मनुष्य-लोक है
यहाँ वे पाँखे तोड दी जाती है
जो उडने की कोशिश किया करती हैं
और वें आँखें फोड दी जाती हैं
जो ईस घरौंदे की सीमा को लाँघ कर
बढने की कोशिश किया करती हैं
ईस लिए वह लाचार
कभी आँखें मूंद कर झाँकता है, कभी खोल कर झाँकता है.
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( मुनि रुपचन्द्र )