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साहित्य के इस शोर-शराबे में हिन्दी-कविता को एक नई और विश्वसनीय आवाज़ मिली है। एक कवि का अपनी भाषा, अपनी धरती, अपने लोगों और अपने समय से गहरा प्रेम होना अनिवार्य है, जो मनमीत में पर्याप्त दिखाई पड़ता है। कविता की इस किताब का चौंकाने वाला शीर्षक ही इस बात की गवाही देता है- ‘माइनस चार से प्लस पचास तक’! यह तापमान का आँकड़ा है, जो उस शहर का है- जहाँ मनमीत का जन्म हुआ, शिक्षा पाई और कविता के रास्ते पर चलना सीखा। सर्वाधिक ठण्डा और सर्वाधिक गर्म! यही तासीर इन कविताओं के कवि की है और उसकी कविताओं की भी। मनमीत की कविताएँ जीवन के राग से, विराग से भरी हुई हैं, लेकिन ऐसा नहीं है कवि की अपने समय पर और उसकी विसंगतियों पर नज़र न हो। यह अच्छी बात है कि कवि की नज़र उस हर चीज़ पर है, जो इस देश और दुनिया को अमानवीय बनाती है। संग्रह में माँ और पिता के बारे में मार्मिक कविताएँ हैं। भारत माता के बारे में भी। ये किंचित लम्बी कविताएँ हैं, लेकिन मनमीत ने अपनी कविता-कला से इन्हें कहीं भी शिथिल नहीं होने दिया। यह कोई कम कमाल नहीं। अपने परिवेश को, अपनी धरती को और अपने मौसम को कवि भूलता नहीं! इस तरह मनमीत का यह पहला कविता-संग्रह एक मुकम्मल कविता-संग्रह बनता है, जिसमें भविष्य की कविताएँ भी झाँक रही हैं। मनमीत रेगिस्तान के कवि हैं। यह समकालीन हिन्दी-कविता की नयी भरोसेमंद आवाज़ है, जिसे सुनना ही होगा!
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( कृष्ण कल्पित )