Category Archives: कविता-हिन्दी/उर्दू

अब कुछ नहीं कहना-मन मीत

अब कुछ नहीं कहना
दिमाग़ सुन्न पड़ चुका है
और मेरी दो अंगुलियों और अंगूठे का ख़तना हो चुका है
जिनसे मैं कलम पकड़ता हूँ
नहीं !
मैं नरेंद्र मोदी को नहीं जानता
मैं अमित शाह को भी नहीं जानता
मैं ममता बैनर्जी को भी नहीं जानता
लेकिन मैं उन करोड़ों लोगों को जानता हूँ
जो अग्नि पूजक यानी हिन्दू कहलाते हैं
लेकिन आज जब घर में आग लगी है
तो वे चुल्लू भर पानी में डूब कर मर चुके हैं
अकेला किस किस से लडूंगा मैं
अगर आज कोई मेरा धर्म परिवर्तन करवाना चाहे
तो मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है
कि मैं खौलते हुए तेल में बैठ जाऊं
या अपनी ज़िंदा चमड़ी खींचने दूं
या दीवार में चुनवा दिया जाऊं तो डरकर अल्लाह हू अकबर नहीं कहूं
मेरे ऋषि मुनि मर गए हैं
मेरी लड़ाका जातियां शराब और कबाब और शबाब में डूबी हैं
मेरे नागा साधु हिमालय में छिपे बैठे हैं
मेरी चुनी हुई सरकार ईदी बांट रही है
यह छोटा सा धड़कता हुआ दिल
अब मेरे काबू में नहीं है
मैं इसे भगत सिंह बनकर
लोकसभा के ख़ाली इलाके में बम की तरह फोड़ देना चाहता हूँ
लेकिन मुझे डर है
इससे मेरे परिवार को भयानक यातना सहनी होगी
कोई नहीं है मेरे साथ
मेरे साथ मेरा देश नहीं है
एक भी आदमी नहीं है मेरे साथ
भगवा झंडा लहराते हुए कायरों को मैं
आदमियों की श्रेणी में नहीं रखता
मैं
एक गड्ढा खोदना चाहता हूँ
और उसमें जीवित समाधि ले लेना चाहता हूँ
लेकिन उसमें भी एक पेंच है श्रीमान –
कहीं वह वक़्फ़ की ज़मीन हुई तो ?
अभी कुछ दिनों पहले
मैं रामदेवरा (रुणिचा) यानी बीकानेर बाबा रामदेव के यहां सर झुकाने गया था
वहां एक तलवार बेचने वाले के पास जैसे ही मैं ठहरा
मेरे रिश्तेदार ने मुझे टोक दिया :
“जब सरकार अपनी है तो तलवार की ज़रूरत ही क्या है ?”
कितना विश्वास था मेरे रिश्तेदार की आंखों में
और आज मैं उस विश्वास को अपनी आंखों से टूटता हुआ देख रहा हूँ !
मैं जानता हूँ
यह कविता लंबी हो गई है
मैं जानता हूँ
यह कविता है ही नहीं
लेकिन कविता तो कुमार अंबुज भी लिखता है और आलोक धन्वा और विष्णु नागर और अविनाश मिश्र भी
जब कवियों के नाम पर इतना कूड़ा पहले से जमा है
तो मैं नया कूड़ा क्यों जमा करूं ?
क्षमा श्रीमान क्षमा !
लेकिन मैं फिर से उसी बात पर आता हूँ
और चीख-चीख कर कहता हूँ
अब कुछ नहीं कहना
दिमाग़ सुन्न पड़ चुका है
और मेरी दो अंगुलियों और अंगूठे का खतना हो चुका है
जिनसे मैं कलम पकड़ता हूँ !
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( मन मीत )

लड़के हमेशा खड़े रहे-सुनीता करोथवाल

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लड़के हमेशा खड़े रहे
खड़ा रहना उनकी कोई मजबूरी नहीं रही
बस उन्हें कहा गया हर बार
चलो तुम तो लड़के हो खड़े हो आओ
तुम मलंगों का कुछ नहीं बिगड़ने वाला
छोटी-छोटी बातों पर वे खड़े रहे कक्षा के बाहर
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स्कूल विदाई पर जब ली गई ग्रुप फोटो
लड़कियाँ हमेशा आगे बैठी
और लड़के बगल में हाथ दिए पीछे खड़े रहे
वे तस्वीरों में आज तक खड़े हैं
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कॉलेज के बाहर खड़े होकर
करते रहे किसी लड़की का इंतजार
या किसी घर के बाहर घंटों खड़े रहे
एक झलक,एक हाँ के लिए
अपने आपको आधा छोड़
वे आज भी वहीं रह गए हैं।
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बहन-बेटी की शादी में खड़े रहे मंडप के बाहर
बारात का स्वागत करने के लिए
खड़े रहे रात भर हलवाई के पास
कभी भाजी में कोई कमी ना रहे
खड़े रहे खाने की स्टाल के साथ
कोई स्वाद कहीं खत्म न हो जाए
खड़े रहे विदाई तक दरवाजे के सहारे
और टैंट के अंतिम पाईप के उखड़ जाने तक
बेटियाँ-बहनें जब तक वापिस लौटेंगी
वे खड़े ही मिलेंगे।
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वे खड़े रहे पत्नी को सीट पर बैठाकर
बस या ट्रेन की खिड़की थाम कर
वे खड़े रहे बहन के साथ घर के काम में
कोई भारी सामान थामकर
वे खड़े रहे माँ के ऑपरेशन के समय
ओ. टी. के बाहर घंटों
वे खड़े रहे पिता की मौत पर अंतिम लकड़ी के जल जाने तक
वे खड़े रहे दिसंबर में भी
अस्थियाँ बहाते हुए गंगा के बर्फ से पानी में
लड़कों रीढ़ तो तुम्हारी पीठ में भी है
क्या यह अकड़ती नहीं?

( सुनीता करोथवाल )

દીકરાઓ હંમેશા ઊભા રહ્યા
ઊભા રહેવું એમની કોઈ મજબૂરી નથી
બસ એમને કહેવામાં આવ્યું.. હંમેશા
ચાલો તમે તો છોકરાઓ છો ઊભા રહી જાવ
તમે જડસુઓનું કંઈ બગડી જવાનું નથી
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નાનીનાની વાતોમાં એ વર્ગની બહાર ઊભા રહ્યા
શાળા વિદાય સમારંભનો જ્યારે ફોટો લેવામાં આવ્યો
છોકરીઓ હંમેશા આગળ બેઠી
અને છોકરાઓ અદબ વાળીને પાછળ ઊભા રહ્યા
તેઓ ફોટોમાં આજ સુધી ઊભા રહ્યા
.
કોલેજની બહાર ઊભા રહીને
જોતા રહ્યા કોઈ છોકરીની રાહ
અથવા કોઈ ઘરની સામે કલાકો ઊભા રહ્યા
એક ઝલક, એક હા માટે
તેઓની અડધી જાત આજેય ત્યાં જ રહી ગઈ છે.
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બહેન-દીકરીનાં લગ્નમાં ઊભા રહ્યા મંડપની બહાર
જાનનું સ્વાગત કરવા માટે
ઊભા રહ્યા આખી રાત કંદોઈ પાસે
ક્યારેય કોઈ શાક ઓછું ન પડે
ઊભા રહ્યા ખાવાનાં મેજ પાસે
ક્યાંક કોઈ વ્યંજન ખતમ ન થઈ જાય
ઊભા રહ્યા વિદાય સુધી દરવાજાના ટેકે
અને મંડપનો છેલ્લો સ્તંભ સંકેલી લેવામાં આવે ત્યાં સુધી
બહેન-દીકરીઓ જ્યારે પગફેરે આવશે
તેઓ ત્યાં ઊભેલા જ હશે.
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તેઓ ઊભા રહ્યા પત્નિને સીટ પર બેસાડીને
બસ કે ટ્રેનની બારી પકડીને
તેઓ ઊભા રહ્યા બહેનની સાથે ઘરનાં કામમાં કોઈ વજનદાર વસ્તુ ઊંચકીને
તેઓ ઊભા રહ્યા માના ઓપરેશનના સમયે
ઓ. ટી.ની બહાર કલાકો
તેઓ ઊભા રહ્યા પિતાનાં મૃત્યુ વખતે છેલ્લું લાકડું બળી જાય ત્યાં સુધી
તેઓ ઊભા રહ્યા ડિસેમ્બરમાં પણ
ગંગાનાં બરફીલા પાણીમાં અસ્થિઓ વહાવતા
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દીકરાઓ,
બરડો તો તમારી પીઠમાંય છે
શું એ ઝકડાઈ જતો નથી ?
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( સુનીતા કરોથવાલ, અનુ. નેહા પુરોહિત )

 

रामलला-मनमीत सोनी

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आँख सरयू है आज रामलला।
तू ही हर सू है आज रामलला।
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दिन किसी फूल-सा महक उट्ठा
रात ख़ुशबू है आज रामलला।
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हम भी सूरज हैं तेरी रहमत से
कौन जुगनू है आज रामलला?
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बाद आबाद कितनी सदियों के
तेरा पहलू है आज रामलला।
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वो तिहत्तर बरस का बूढा शख़्स
तेरा बाज़ू है आज रामलला।
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केसरी रंग का उगा सूरज
तेरा जादू है आज रामलला।
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उसको जीने का मिल गया मक़सद
जो भी हिन्दू है आज रामलला।
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( मनमीत सोनी )

राम : कुछ शब्द-चित्र : भाग पांच-मनमीत सोनी

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1.
क्योंकि अब
मैं अपने राम का कवि हूँ-
क्या इसीलिए
तुम्हारे काम का कवि नहीं हूँ?
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2.
मैं कवि हूँ
मैं भक्त नहीं हूँ..
जाओ!
और मुझे
इस अवसाद में घुलने दो
कि रामराज्य आ भी गया
तो जीवन-मृत्यु का क्या होगा?
.
3.
सीताएँ
धरती में समाती रही हैं..
राम
नदियों में डूबते रहे हैं..
कोई तो बताए..
आसमान जैसे लोग
आख़िर
कहाँ चूकते रहे हैं?
.
4.
तुलसीदास जी!
एक बात कहूँ?
बुरा तो नहीं मानेंगे?
मेरी रत्ना ने मुझे भी वही उलाहना दिया था, जो आप की रत्ना ने आप को दिया था।
लेकिन मैं हार कर रामचरितमानस नहीं लिखने बैठ गया।
बल्कि मैंने अपनी रत्ना को इस बार अलग तरीक़े से प्यार किया और उसने इस बार मुझे कोई उलाहना नहीं दिया।
उलटे वह तो मेरी और ज़्यादा दीवानी हो गई।
तुलसीदास जी!
एक बात और कहूँ?
बुरा तो नहीं मानेंगे?
.
5.
रामजी ने ताड़का को तीर मारा
तीर ताड़का के बाएं सीने में घुप गया
ताड़का धरती पर गश खा कर गिर गई
लक्ष्मण जी ख़ुशी से फूले न समाए
लक्ष्मण जी ने राम जी से कहा :
मर गई दुष्ट!
राम जी ने लक्ष्मण जी से कहा :
अच्छी बात है! लेकिन इस देवी को भी कहाँ पता था कि वह राक्षसी थी!
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( मनमीत सोनी )

राम : कुछ शब्द-चित्र : भाग चार-मनमीत सोनी

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1.
मेरे राम
ईश्वर राम हैं
केवल सेनानायक राम नहीं..
राम के विरुद्ध बोलने से
वह बस राम का नहीं रहता
लेकिन राम का नहीं रहने से
वह रावण का भी तो नहीं हो जाता!
.
2.
कैकेयी
एक चालाक रानी-भर नहीं थी-
कैकेयी
दरअसल दशरथ के भीतर की
एक बहुत पुरानी बेचैनी थी
जिसे दशरथ को बुझाना नहीं आया!
.
3.
राम जैसे ईश्वर से
मनुष्य के अभिनय में कितनी ही चूकें हुई हैं –
मैं इसीलिए तो कहता हूँ..
मनुष्यों को
देवताओं का अभिनय करने से बचना चाहिए!
.
4.
यह मत समझना
कि यह मंदिर
अब कभी नहीं टूटेगा
अधर्म
फिर आएगा
और फिर-फिर आएगा
तम्बू में
एक बार नहीं
बल्कि कई बार रहना पड़ेगा
श्री राम जी को
एक ढांचा
मनुष्य की हड्डियों और लहू से बना ढांचा
कभी भी खड़ा हो जाएगा
कितनी ही शताब्दियाँ
फिर ज़ाया हो जाएँगी
खूँख़्वार मनुष्य की रीढ़ सीधी करने में!
.
( मनमीत सोनी )

राम : कुछ शब्द-चित्र : भाग तीन-मनमीत सोनी

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1.
अजी! क्या आपको मुझ पर शक है?
“कैसी बात करती हो सीते? बिलकुल नहीं!”
तो फिर डरते क्यों हैं?
“डरता हूँ कि लोग फिर भी बहुत कुछ कहेंगे!”
लोगों को भूल जाइये!
“कैसे भूल जाऊँ! मेरी प्रजा है!”
सीताजी के तन-बदन में आग लग गई। कालांतर में कुछ भोले और मूर्खों ने इसे सचमुच की आग समझ लिया। आज जिसे अग्नि-परीक्षा कहते हैं, दरअसल वह अपने मूल में पति-पत्नी की मीठी तकरार थी!
.
2.
रामायण में सब कुछ आदर्श है। इतना आदर्श है कि तुलसीदास जैसा भक्त इस पर रामचरित मानस लिख सकता है मगर मनमीत जैसा खल-कामी दस-बारह कविताओं में ही थक जाता है!
.
3.
पका हुआ फल
खिला हुआ फूल
माँ का पहला दूध
बच्चे का टूटा दाँत
पुरुष की पहली कमाई
नई-नई बहू ने नेगचार आदि-आदि..
मेरे बिम्ब
कितने साफ़-सुथरे हो जाते हैं-
जब मैं राम का नाम लेता हूँ!
.
4.
जो स्त्री
किसी के टोकने पर
आग में जल सकती है
और धरती में समा सकती है
वह किसी रावण के बाँधने से क्या बँधती?
लेकिन यह
एक स्त्री का निर्दोष हठ था
कि उसका पुरुष आएगा
पूरी बरात और ढ़ोल-धमाकों के साथ आएगा
और जब तक
वह नहीं आएगा
वह अपनी रस्सियाँ नहीं खोलेगी!
.
( मनमीत सोनी )

राम : कुछ शब्द-चित्र : भाग दो-मनमीत सोनी

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1.
मैं दावे से तो नहीं कह सकता
फिर भी ऐसा लगता है
कि वनवास का सुख भोगने के बाद
रामजी का मन अयोध्या में लगा नहीं होगा!
.
2.
कैकेयी तो बहाना था
वह तो वैसे भी वनवास जाता-
जो इतना विनम्र था
जो इतना सहनशील था
और जिसने माता-पिता के झगड़े देखे थे!
.
3.
किसी राम के नहीं छुए जाने तक हर स्त्री
और किसी सीता के नहीं छुए जाने तक हर पुरुष-
एक अहिल्या ही तो है!
.
4.
राम ने
स्वयं को सगुण राम से
निर्गुण राम बनते देखा है..
और यह राम के साथ न्याय है या अन्याय..
कोई नहीं जानता!
.
5.
राम
फूट कर रोते हैं
लेकिन खुल कर हँस नहीं पाते –
कहानीकार क्या कहना चाहता है?
.

( मनमीत सोनी )

राम : कुछ शब्द-चित्र : भाग एक-मनमीत सोनी

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1.
मुझे क्यों लग रहा है
कि मैं वही केवट हूँ
और इस रेगिस्तान में
बह रही है एक नदी..
जो अयोध्या जा रही है!
.
2.
मैं
अपने घर का बड़ा ही बड़ा बेटा हूँ
और इस नाते
मैं एक छोटा-मोटा राम ही तो हुआ..
मुझे
रामजी की सौगंध
कि मैं सगे, चचेरे और ममेरे भाई-बहनों के लिए
कोई भी क़ुरबानी दूँगा!
.
3.
रामजी ने
शिवजी का धनुष तोड़ दिया-
रामजी को कोई जोर नहीं आया!
लेकिन रामजी ने
जब प्रेम का धनुष उठाया
तो रामजी के भी पसीने छूट गए!
.
4.
डरपोक लोगो!
बच्चे के जन्म पर कहा करो :
राम नाम सत्य है!
मुर्दे को क्या सुनाते हो?
.
( मनमीत सोनी  )

वे पुरानी औरतें-सुनीता करोथवाल

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जाने कहाँ मर-खप गई वे पुरानी औरतें

जो छुपाए रखती थी नवजात को सवा महीने तक

घर की चार दीवारी में।

नहीं पड़ने देती थी परछाई किसी की

रखती थी नून राई बांध कर जच्चा के सिरहाने

बेल से बींधती थी चारपाई

रखती थी सिरहाने पानी का लोटा,

सेर अनाज

दरवाजे पर सुलगाती थी हारी दिन-रात।

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कोई मिलने भी आता तो झड़कवाती थी आग पर कपड़े

और बैठाती थी थोड़ा दूर जच्चा-बच्चा से

फूकती थी राई, आजवाइन, गुगल सांझ होते ही

नहीं निकलती देती थी घर से गैर बखत किसी को।

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घिसती थी जायफल हरड़ बच्चे के पेट की तासीर माप कर

पिलाती थी घुट्टी

और जच्चा को देती थी घी आजवाइन में गूंथ कर रोटियाँ।

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छ दिन तक रखती थी दादा की धोती में लपेटकर बच्चे को

फिर छठी मनाती थी

बनाती थी काजल कचळौटी में

बांधती थी गले में राईलाल धागे से

पहनाती थी कौड़ी पैर में

पगथलियों पर काला टीका लगा

लटकाती थी गले में चाँद सूरज

बाहर की हर अला-बला से बचाती थी

कहती थी कच्ची लहू की बूंद है अभी ये

ओट में लुगड़ी की दूध पिलाती थी।

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घर से बाहर निकल कर देखो पुरानी औरतो

प्रदर्शनी लगी है दूध मुंहे बच्चों की सोशल मीडिया पर।

.

कोई नजर का टीका

कोई नज़रिया बचा हो तो बाँध दो इन्हें

वरना झूल रहे हैं ये बाज़ार की गोद मे

लोगों के सैकड़ों कमेंट्स और लाइक्स के चक्कर में ।

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( सुनीता करोथवाल )

 

 

इमरोज़ वो शख्स-ज़ीशान खान

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इमरोज़ वो शख्स
जो उम्र भर फिरता रहा
अपनी पीठ पर
अपनी प्रेमिका के प्रेमी का नाम लिए,
इमरोज़ वो शख्स
जिसकी मुस्कुराहट की सिर्फ एक वजह थी
अमृता की मुस्कुराहट,
फिर उसकी वजह किसी साहिर का
तसव्वुर ही क्यों न हो,
क्या फर्क पड़ता है,
आखिर अमृता की मुस्कान वजह थी
खुद उसके मुस्कुराने की,
लोग ये कहते है
इमरोज़ ने अमृता के लिए जिंदगी ख़ाक कर दी,
मैं ये कहता हूँ इमरोज़ ने
अपनी ज़िंदगी को बड़ी ही शिद्दत से जिया,
शायद इमरोज़ जानता था इश्क़ किसे कहते है,
अहसासों और जज़्बातों की
कीमत का सही अंदाज़ा था उसे,
सुनो लड़को
इश्क़ सीखना है तो इमरोज़ से सीखो,
ज़रूरी नही के जिसे तुम चाहो
वो भी तुम्हे टूट कर चाहे,
किसी को बाहों में भरने से पहले ही
उसे आज़ाद कर देना इश्क़ है….
सनम नज़र में हो फिर विसाल की ज़रूरत क्या है,
चाँद का दीदार ही काफी है रतजगे के लिए…
अलविदा इमरोज़,
उम्मीद हैं अब जहां तुम होगे वहाँ सिर्फ खुशियां होंगी…
.
( ज़ीशान खान )