
गालियों और तालियों में आकंठ डूबे हुए
ऐ नए भारत के विश्वकर्मा!
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तुम “डीज़र्व” करते हो “फैन फॉलोइंग”
और यह कहने में कोई संकोच नहीं
कि मेरे पास एक बार तुम्हें
चूरू में “लाइव” देखने का घमंड है!
यह देश
जब एक महान अवसाद में डूबा हुआ था
तब तुम आए आशा की किरण बनकर
और उस एक किरण से
दशकों के अँधेरे के शून्य को भर दिया प्रकाश से
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कितना भव्य स्वागत हुआ तुम्हारा
कितना अपमान किया गया तुम्हारा
कितनी भीड़ थी हाथ में मालाएं लिए
कितने चाकू छुरियां थीं तुम्हें मारने के लिए
तुमने मालाएँ ख़ुशी ख़ुशी पहन लीं
तुमने चाकुओं और छुरियों को भी सीने में उतर जाने दिया
पिछले पंद्रह बरस से
अनाथ नहीं लगता यह यह देश
ऐसा लगता है जैसे भारत नाम के बूढ़े बाप की
तुमने तन-मन-धन से इतनी सेवा की है
कि यह अभी उठकर दौड़ने लगेगा
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कैसे विरोधियों से घिरे हो तुम
जो अपने “हिन्दू” होने पर शर्मिंदा हैं
जिन्हें अफ़सोस है कि भारत में पैदा हुए
जो मुसलमानों को हिन्दुओं से
और हिन्दुओं को उनके दलित भाइयों से अलग कर देना चाहते हैं
ग़ालिब ने कहा था :
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“चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत ए रफ़ू क्या है”
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तुम्हें देख कर भी
ऐसा ही लगता है नरेन्द्र मोदी
कि तुम्हारे लहू के गोंद की वजह से ही चिपका हुआ है :
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कश्मीर या बंगाल या केरल हिंदुस्तान के बदन से!
मैं नहीं जानता
कि तुम ख़ुद हट जाओगे
या लोग ही तुम्हें हटा देंगे
लेकिन याद बहुत आओगे नरेन्द्र मोदी
जब चले जाओगे :
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एक चिड़िया के उड़ जाने से भी
सूना हो जाता है आकाश
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एक फूल के मुरझा जाने से भी
मरणधर्मा हो जाती है सारी हरियाली
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फिर तुम तो हमारी आशा हो
हम किसकी ओर देखेंगे तुम्हारे बाद?
आएँगे हज़ारों देशभक्त
हमारे पिटारे में अभी हज़ारों नरेन्द्र मोदी हैं
लेकिन तुम-सा नहीं आएगा कोई
और कोई कहेगा भी कि वह दूसरा नरेन्द्र मोदी है
तो हमें हँसी आएगी उस पर!
मुझ युवा कवि को
यदि सत्ता का दलाल कहा जाए
तो मुझे कोई परवाह नहीं
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मैं
चीन या पाकिस्तान या तुरकिये का दलाल होने से
कहीं कहीं बेहतर
अपने चुने हुए प्रधानमंत्री की
जूठी हुई प्लेट उठाना समझता हूँ!
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क्या करूँगा कविताओं का
जब देश ही नहीं बचेगा
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छाती पर खड़े
लाखों-करोड़ों गद्दारों के बीच
वैसे भी मेरी कविताओं का मूल्यांकन नहीं होगा!
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वे क्या पढ़ेंगे मेरी कविताएं
मैं स्वयं अपनी कविताओं को
उनकी आँखों के नीचे से दरी की तरह खींचता हूँ!
2014 से पहले
डरता था अपनी बात कहने से पहले
कि हमारी कोई नहीं सुनता था
न फेसबुक हमारा था न फेसबुक के बाहर की दुनिया
और अब हालात यह हैं
कि लोग लाइन लगा कर खड़े हैं
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“क्या मनमीत की नई कविता आई”
ट्रोल होने से नहीं डरता अब
फेसबुक की फ़ेक आइडियों से भी नहीं
दस-पंद्रह-बीस-तीस हज़ार के
फॉलोवर्स वाले हवाई चुनाव-विश्लेषकों से भी नहीं..
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डरता हूँ तो सिर्फ़ इस बात से
कि मुझ कवि ने
जिस राजनेता को इतना प्यार किया
कहीं वह अपने पीछे इतना बड़ा शून्य न छोड़ जाए
कि हमें डर लगने लगे :
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हमारे बच्चों का क्या होगा?
जिनकी तलवारें
इस इंतज़ार में हैं
कि तुम मरो तो म्यान से बाहर निकलें
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जिनकी बंदूकें
इस मौके की तलाश में हैं
कि तुम मरो तो छुपाई हुई गोलियाँ निकालें
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जिनके बारूद
इस फिराक़ में हैं
कि तुम मरो तो पूरे देश को एक झटके में उड़ा दिया जाए
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मैं
एक मामूली-सा कवि
इन सबके सामने छाती तान कर खड़ा हूँ!
तुम नहीं जानते
कि तुमने इस भारत महान को
कम से कम हज़ार वर्षों के लिए बचा लिया
लिखते चले जाने का
कोई अंत तो है नहीं मोदी जी
कि हम तो भोले बावले हैं
कि जिससे कर बैठे प्यार
उसी पर लुटा बैठे आँख के आँसू कलम की स्याही
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इतने बदनाम हैं
तुम्हें प्यार करने वाले
कि तुम्हारी जान को ही नहीं
हमारी जान को भी ख़तरा है नरेन्द्र मोदी!
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बचकर रहना नरेन्द्र मोदी
शिवाजी की तरह बदलते रहना क़िले
महाराणा प्रताप की तरह बदलते रहने जंगल
झांसी की रानी की तरह
इस भारत को अपनी कमर से बांध कर
करते रहना तलवारबाज़ी
गूँज रही हैं
कैफ़ी आज़मी की पंक्तियाँ
मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ में :
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“ज़िंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर
जान देने की रुत रोज़ आती नहीं”
जान देने की रुत आ गई
नरेन्द्र मोदी…
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आओ!
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हम सब
भारत माता की बलिवेदी पर बलिदान होते हैं!
( मनमीत सोनी )







