Tag Archives: हिन्दी कविता

अच्छी लगी – हनीफ साहिल

रास्तों में गुमरही अच्छी लगी

ये तलाशे-बेखुदी अच्छी लगी

 .

मैंने देखा है उसे बस एक बार

एक लडकी अजनबी अच्छी लगी

 .

सारा दिन तो शोर रहता है यहां

शाम होते ही गली अच्छी लगी

 .

गम से गेहरा कोई भी दुश्मन नहीं

गम से अपनी दोस्ती अच्छी लगी

 .

गमकदे में तीरगी जब बढ गई

खूने-दिलकी रौशनी अच्छी लगी

 .

एक बस तेरी कमी खलती रही

वरना हमको जिंदगी अच्छी लगी

 .

शायरी से क्या मिला तुमको हनीफ

हां मगर ये सरखुशी अच्छी लगी

 .

( हनीफ साहिल )

તારી ગુલાબી હથેળી – સર્વેશ્વરદયાલ સક્સેના

પહેલી વાર

મેં જોયું પતંગિયું

કમલમાં રૂપાંતરિત થતું

પછી કમળ પરિવર્તન પામ્યું

ભૂરા જળમાં

ભૂરું જળ

અસંખ્ય પંખીઓમાં

અસંખ્ય પંખીઓ

રંગીન લાલ આકાશમાં

અને આકાશ રૂપાંતરિત થયું

તારી ગુલાબી હથેળીમાં…

આમ ને આમ મેં અનેકવાર જોયાં આંસુઓ

સપનામાં રૂપાંતરિત થતાં…

 .

( સર્વેશ્વરદયાલ સક્સેના, અનુ. સુરેશ દલાલ )

 .

મૂળ : હિન્દી

प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का – हरिवंशराय बच्चन

प्यास होती तो सलिल में डूब जाती,

वासना मिटती न तो मुझको मिटाती,

पर नहीं अनुराग है मरता किसी का;

प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का.

 .

तुम मिलीं तो प्यार की कुछ पीर जानी,

और ही मशहूर दुनिया में कहानी,

दर्द कोई भी नहीं हरता किसी का;

प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का.

 .

पाँव बढते, लक्ष्य उनके साथ बढता,

और पल को भी नहीं यह क्रम ठहरता,

पाँव मंजिल पर नहीं पडता किसी का;

प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का.

 .

स्वप्न से उलझा हुआ रहता सदा मन,

एक ही इसका मुझे मालूम कारण,

विश्व सपना सच नहीं करता किसी का;

प्यार से, प्रिय, जी नहीं भरता किसी का.

 .

( हरिवंशराय बच्चन )

क्यों आंसु – चिनु मोदी ‘ईर्शाद’

क्यों आंसु की धारा है ?

छत पर टूटा तारा है.

.

सुखे खेत को मालूम है

बादल है, आवारा है ?

 .

‘अमां, यहां हूं’, बोल न पाया

अल्ला है, बेचारा है.

 .

करीब आकर सिकूड गया

साया मारा मारा है.

 .

सांस की बाजी, मत खेलो;

जो भी जीता, हारा है.

 .

( चिनु मोदी ‘ईर्शाद’ )

छाई घटा – दुर्गेश उपाध्याय

छाई घटा घनघोर,

सखीरी सावन बरसे.

वीज चमकत है ठोर,

सखीरी तन-मन तरसे.

 .

मोरे पियु भये परदेश,

नाही को’ सार-संदेहा.

जीवतर लागै भार,

सखीरी सावन बरसे.

छाई घटा…

 .

मोर-पपीहा शोर मचावत,

बाल करत कलशोर.

भीतर गरजै घोर,

सखीरी तन-मन तरसे

छाई घटा…

.

( दुर्गेश उपाध्याय )

बाँध दो बिखरे सुरों को-हरिवंशराय बच्चन

गीत ठुकराया हुआ, उच्छवास-क्रंदन,

मधु मलय होता उपेक्षित हो प्रभंजन,

बाँध दो तूफान को मुसकान में तुम;

बाँध दो बिखरे सुरों को गान में तुम.

 .

कल्पनाएँ आज पगलाई हुई हैं,

भावनाएँ आज भरमाई हुई हैं,

बाँध दो उनको करुण आह्वान में तुम;

बाँध दो बिखरे सुरों को गान में तुम.

.

व्यर्थ कोई भाग जीवन का नहीं हैं,

व्यर्थ कोई राग जीवन का नहीं हैं,

बाँध दो सबको सुरीली तान में तुम;

बाँध दो बिखरे सुरों को गान में तुम.

 .

मैं कलह को प्रीति सीखलाने चला था,

प्रीति ने मेरे हृदय को छला था,

बाँध दो आशा पुन: मन-प्राण में तुम;

बाँध दो बिखरे सुरों को गान में तुम.

 .

( हरिवंशराय बच्चन )

प्रात-मुकुलित – हरिवंशराय बच्चन

ठीक है मैंने कभी देखा अँधेरा,

किन्तु अब तो हो गया फिर से सबेरा,

भाग्य-किरणों ने छुआ संसार मेरा;

 प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा.

 .

तप्त आँसू से कभी मुख म्लान होता,

किन्तु अब तो शीत जल में स्नान होता,

राग-रस-कण से घुला संसार मेरा,

प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा.

 .

आह से मेरी कभी थे पत्र झुलसे,

किन्तु मेरी साँस पाकर आज हुलसे,

स्नेह-सौरभ से बसा संसार मेरा;

प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा.

 .

एक दिन मुझमें हुई थी मूर्त जडता,

किन्तु बरबस आज मैं झरता, बिखरता,

है निछावर प्रेम पर संसार मेरा;

प्रात-मुकुलित फूल-सा है प्यार मेरा.

 .

( हरिवंशराय बच्चन )

आज आओ – हरिवंशराय बच्चन

तापमय दिन में सदा जगती रही है,

रात भी जिसके लिए तपती रही है,

प्राण, उसकी पीर का अनुमान कर लो;

आज आओ चाँदनी में स्नान कर लो.

 .

चाँद से उन्माद टूटा पड रहा है,

लो, खुशी का गीत फूटा पड रहा है,

प्राण, तुम भी एक सुख की तान भर लो;

आज आओ चाँदनी में स्नान कर लो.

 .

धार अमृत की गगन से आ रही है,

प्यार की छाती उमडती जा रही है,

आज, लो, मादक सुधा का पान कर लो;

आज आओ चाँदनी में स्नान कर लो.

 .

अब तुम्हें डर-लाज किससे लग रही है,

आँखे केवल प्यार की अब जग रही है,

मैं मनाना जानता हूँ, मान कर लो;

आज आओ चाँदनी में स्नान कर लो.

 .

( हरिवंशराय बच्चन )

 

 .

( हरिवंशराय बच्चन )

जानता हूँ प्यार – हरिवंशराय बच्चन

बाँह तुमने डाल दी ज्यों फूल माला

संग में, पर, नाग का भी पाश डाला,

जानता गलहार हूँ, जंजीर को भी;

जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी.

 .

है अधर से कुछ नहीं कोमल कहीं पर,

किन्तु इनकी कोर से घायल जगत भर,

जानता हूँ पंखुरी, शमशीर को भी;

जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी.

 .

कौन आया है सुरा का स्वाद लेने,

जोकि आया है हृदय का रक्त देने,

जानता मधुरस, गरल के तीर को भी;

जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी.

 .

तीर पर जो उठ लहर मोती उगलती,

बीच में वह फाडकर जबडे निगलती

जानता हूँ तट, उदधि गंभीर को भी;

जानता हूँ प्यार, उसकी पीर को भी

 .

( हरिवंशराय बच्चन )

बचपन में – दीपक भास्कर जोशी

Moon

.

बचपन में घर के पीछे की

अमराई में

एक छोटी सी नदी बहती थी

पूरनमासी के दिन

चांद उतर आता

था नदी के

आखरी मोड पर !

बचपन के नन्हें हाँथों

से मैं एक बार

चांदी की थाली सा चांद

नदी की परत से

उठा लाया था

और चिपका दिया था

कोने वाली दीवार पर !!

दिन में कहीं भी उसका

अस्तित्व

नहीं रहता था

लेकिन रात को

चमकता रहता

था

दीवार पर !

दादी की कही

चरखे वाली बूढी, खरगोश

सब दिखाई देते थे

नीलम परी के साथ

बचपन छूटा

गाँव की दीवार छूटी

नदी का मोड भी !

अब चांदी की थाली सा चांद

शहर की घनी बस्ती के

माथे पर दिखाई देता है

घर की दीवार पर नहीं दोस्त !

क्योंकि

घर के पीछे

न अमराई है

न उसके पीछे

आखरी मोड पर

मुडती नदी !

 .

( दीपक भास्कर जोशी )