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मैं तुझे फिर मिलूँगी-જિજ્ઞેશ અધ્યારુ

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તા. 22 ડિસેમ્બરને શુક્રવારના રોજ ચિત્રકાર ઈન્દ્રજીત સિંહ – ઇમરોઝનું અવસાન થયું. મને નથી લાગતું કે અમૃતા પ્રીતમ – સાહિર અને ઇમરોઝનો પ્રણય ત્રિકોણ હતો. એ એક રેખાના ત્રણ બિંદુઓ હતાં.
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ઇમરોઝનો પ્રેમ એકપક્ષી હતો, કહેવાતા ‘પ્લેટોનિક’ પ્રેમના એ ધ્વજધર હતાં પણ શું એવો એકપક્ષીય પ્રેમ હકારાત્મક કે પ્રોત્સાહક હોય છે ખરો? ખાસ કરીને ત્યારે જ્યારે તમને ખબર છે કે તમે જેને પ્રેમ કરો છો એ તમને નહીં પણ અન્ય કોઈને ચાહે છે!
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અમૃતાના ઈ.સ. 1935માં પ્રીતમસિંહ સાથે લગ્નથી એક પુત્ર અને એક પુત્રી થયાં. એમના લગ્ન બહુ ન ટક્યાંં, અમૃતા સાહિર લુધિયાનવીના પ્રેમમાં ગળાડૂબ હતાં. પોતાની આત્મકથા રસીદી ટિકટમાં એ લખે છે, ‘સાહિર ચૂપચાપ મારા રૂમમાં સિગારેટ પીતો. અડધી પીધા પછી એ સિગારેટ હોલવીને નવી સિગારેટ સળગાવતો. જ્યારે તે જતો રહેતો ત્યારે તેની ધૂમ્રપાન કરેલી સિગારેટની ગંધ ઓરડામાં જ રહેતી. હું તે સિગારેટના ઠૂંઠા હાથમાં લઈ એકલામાં ફરી સળગાવતી. જ્યારે હું એ ઠૂંઠા મારી આંગળીઓમાં પકડતી ત્યારે એવું લાગતું કે હું સાહિરના હાથને સ્પર્શ કરી રહી છું.’
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તો ઇમરોઝ એક ઈન્ટરવ્યુમાં કહે છે, ‘અમૃતાની આંગળીઓ હંમેશા કંઈક લખતી રહેતી. એના હાથમાં પેન હોય કે ન હોય. એણે ઘણી વાર સ્કૂટર પર મારી પાછળ બેસીને મારી પીઠ પર સાહિરનું નામ લખ્યું છે. ભલે, હું પણ એનો અને મારી પીઠ પણ એની..’
આ ભાવ અસહજ છે!
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અમૃતા એક પુસ્તકના કવર ડિઝાઈન માટે ઇમરોઝ સાથે સંપર્કમાં આવ્યા હતાં. સાહિર સાથેના તેમના સંબંધોની વાત કહેતી રસીદી ટિકટનું કવર ડિઝાઈન પણ ઇમરોઝે કર્યું. ઇમરોઝ ચિત્રકાર હતાં જેમના જીવનનું ચિત્ર મારા મતે અધૂરું રહ્યું.
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અમૃતા સાહિર તરફ ખૂબ આકર્ષાયેલ હતાં અને ઇમરોઝ અમૃતા તરફ. ઇમરોઝ અને અમૃતા પોતાના સંબંધને કોઈ નામ આપ્યા વગર એક જ ઘરના અલગ અલગ ઓરડામાં ચાલીસ વર્ષ ‘સાથે’ રહ્યાં.
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મને ઇમરોઝ થવું – ઇમરોઝપણું કદી ગમ્યું નથી. પ્રેમમાં પડેલી દરેક સ્ત્રી અમૃતા થવા માંગતી હશે કે કેમ એ વિચારનો વિષય હોઈ શકે પણ કોઈ ઇમરોઝ થવા માંગતુ ન હોવું જોઈએ.. કદાચ!
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એક તરફનો પ્રેમ કદી સુખ આપતો નથી. એ અસ્વીકરણ મને બહુ શોષણ કરનારું લાગે છે. એકપક્ષીય પ્રેમનો બીજા પાત્ર દ્વારા સ્વીકાર પણ ન્યાય નથી. અમૃતા અને ઇમરોઝ વચ્ચે પ્રેમને લઈને ભલે સ્પષ્ટતાઓ હતી, ભલે કોણ કોને પ્રેમ કરે છે એ સ્પષ્ટ હતું પણ આ ચાલીસ વર્ષ ઇમરોઝ કઈ આશાને તાંતણે ઝૂલતા રહ્યાં હશે એ સમજી શકાય એવી વાત છે.
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અમૃતાએ ઇમરોઝ માટે લખ્યું છે –
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे कैनवास पर उतरुँगी
या तेरे कैनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगों में घुलती रहूँगी
या रंगों की बाँहों में बैठ कर
तेरे कैनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रूर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
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ખેર આવતા જન્મે ઇમરોઝને અમૃતા કોઈ શરત વગર પૂર્ણપણે મળે એવી ઈશ્વરને પ્રાર્થના. જો કે આ જન્મે પણ એ પૂર્ણ હતું કે નહીં એ ઇમરોઝ વગર કોણ કહી શકે?
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( જિજ્ઞેશ અધ્યારુ )

इमरोज़ ने नहीं छोड़ा-दीपाली अग्रवाल

 

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इमरोज़ का नाम आते ही अमृता प्रीतम याद आ जाती हैं, चूंकि वे उनकी मशहूर प्रेम कहानियों का एक बड़ा हिस्सा थे। उनके जीवन के महत्वपूर्ण किरदार जिसने अपने सारे वजूद को अमृता की छांव बना लिया। उनकी मृत्यु हो गई है, इमरोज़ की मृत्यु हो गई है अमृता के जाने के लगभग 18 साल बाद। उनके क़रीबी बताते हैं कि वे अक्सर ही अमृता को याद करते रहते और कहते कि वो यहीं-कहीं मौजूद है। इमरोज़ से लोग इस प्रेम कहानी के आकर्षण में मिलना भी चाहते थे। उन्हें फ़ोन लगाते और अमृता के बारे में पूछते, पहले तो वे कई कार्यक्रमों में नज़र भी आए फिर जाना बंद कर दिया, उम्र का असर रहा होगा शायद।
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लेकिन इमरोज़ एक मशहूर पेंटर भी थे, उन्होंने कई किताबों के आवरण तैयार किए, अपनी उम्र के आख़िरी पड़ाव तक भी उनकी कूची किताबों के लिए रंग भर रही थी। 26 जनवरी, 1926 को पंजाब में पैदा हुए इंद्रजीत 1966 में लगभग 40 की उम्र में अमृता से मिले थे। अमृता से एक कलाकार के तौर पर जुड़े और वहीं से नाम बदल कर किया इमरोज़। उनकी औऱ अमृता का दोस्ती गहराती गई। अमृता अपने पति प्रीतम से अलग हो चुकी थीं और 2 बच्चों की मां थीं, वह साहिर के प्रेम में थीं और इमरोज़ अमृता के। अमृता और इमरोज़ के शारीरिक संबंध न थे जबकि वह एक छत्त के नीचे रहते थे, लोग इसे प्लेटोनिक लव मानते हैं। अमृता रात में लिखती रहतीं और इमरोज़ चाय का कप रख जाते।
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एक बार गुरुदत्त ने इमरोज़ की पेंटिंग से प्रभावित होकर उन्हें बंबई बुलाया, अमृता ने उन्हें जाने भी दिया, वो बंबई भी पहुंच भी गए कि अमृता ने तार भेजा कि बुखार में हैं और इमरोज़ वहां से वापस दिल्ली आ गए। अमृता प्रीतम राज्यसभा गईं तो वो उन्हें छोडने जाते कि लोग उन्हें ड्राइवर समझ बैठे थे। इमरोज़ ने अपने अस्तित्व को अमृता में मिला दिया था। उनका प्रेम बिना किसी आकांक्षा और इच्छा के था। वह उनकी साथ चाहते थे। इमरोज़ ने उनके लिए कविताएं भी लिखीं, उनके जाने के बाद भी, वे अमृता को ही याद करते रहते और मानते कि वह कभी मरी ही नहीं हैं। सच है कि प्रेम मरता ही कहां है, वह तो भीतर ही मौजूद रहता है। अमृता ने भी इमरोज़ के लिए लिखा था कि मैं तैनूं फिर मिलांगी औऱ ये नज़्म ख़ूब लिखी-पढ़ी और सुनी गई।
अमृता की वो किताब जो उनके और साहिर के क़िस्से कहती है रसीदी टिकट, उसका आवरण इमरोज़ ने तैयार किया था। इमरोज़ जैसा प्रेम वाकई विरले ही कर पाते हैं, ख़ुद को खोकर किसी के जीवन की चमक बनना आसान कहां है। इमरोज़ से एक दफ़ा अमृता ने कहा था कि वो पूरी धरती का चक्कर लगा ले और लगे कि अब भी अमृता के साथ ही रहना है तो वह इंतज़ार करती मिलेंगी। इमरोज़ ने अमृता का चक्कर लगाकर कहा कि हो गया पूरी धरती की चक्कर और वह उनके साथ ही रहेंगे।
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इमरोज़ ने वो साथ अभी तक नहीं छोड़ा था, वह अपनी स्मृतियों और अपने होने भर से ही उऩकी मौजूदगी का एहसास करवाते थे। अब अमृता का धरती पर स्मरण करवाने के लिए वो देह नहीं बची। मुहब्बत में ज़िंदगी में ऐसे भी जी जाती है क्या भला।
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( दीपाली अग्रवाल )

She Live On-Uma Trilok

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मेरी किताब “She Live On“ के पन्नो से…
मैंने एक बार इमरोज़ जी से पूछा, “ इमरोज़ जी, अमृता जी को उनके लेखन पर, उनकी शख़्सियत पर इतनी वाह वाही मिलती है और आपको कई बार कुछ लोग पहचानते तक भी नहीं, आपको बुरा नहीं लगता ? “
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तब वह हंस कर बोले, “तुम्हें हम अलग अलग लगते हैं क्या, भोलिऐ , अमृता और मैं तो एक ही हैं , वह वाह वाही तो मुझे भी मिल रही होती है ना“
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मुझे श्रीकृष्ण और राधा रानी का क़िस्सा याद आ गया….
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जब श्रीकृष्ण वृंदावन छोड़ कर जा रहे थे तो राधा जी ने उनसे कहा, “कान्हा, मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूँगी ? तुम मुझ से ब्याह कर लो और अपने साथ ले चलो”.
श्रीकृष्ण मुँह मोड़ कर खड़े हो गये और राधा जी ने सोचा वह मना कर रहे है, तब श्री कृष्ण ने कहा था “राधे , ब्याह रचाने के लिए दो लोगों की ज़रूरत होती है, तुम और मैं तो एक ही हैं“
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ऐसा प्यार कलियुग में भी घटा लेकिन लोगों ने नहीं समझा
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( उमा त्रिलोक )

अमृता गई ही नहीं-उमा त्रिलोक

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प्रोमिला जी ने ठीक ही कहा कि माजा ( इमरोज़ अमृता जी को प्यार से माजा बुलाते थे ) गई ही नहीं वह इमरोज़ जी के साथ ही थी.
मुझे याद है अमृता जी के दाह संस्कार के वक्त, जब इमरोज़ जी एक कोने में अकेले खड़े थे तो मैंने उनके कंधे पा हाथ रख कर कहा था “इमरोज़ जी अब उदास नहीं होना, आपने तो दिलों जान से सेवा की थी फिर भी….”
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उन्होंने बात काट कर कहा था….
“उमा जी, उसने जाना कहाँ है यही रहना है मेरे आले दुआले ,,,, मैं तो खुश हूँ , जो मैं नहीं कर सका वह मौत ने कर दिया , उसे उसके दर्द से निजात दिला दी ।
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और वह तो हमेशा यही कहते “वह गई नहीं , उसने शरीर छोड़ा है साथ नहीं , जब तक मैं ज़िंदा हूँ वह मेरे साथ ज़िंदा है “
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इमरोज़ जी अमृता जी का कमरा आज भी रोज़ सजाते, ताज़े एडेनियम के फूलों से महकाते, उनके लिए खाना पकाते,पूछने पर कहते, “ मैंने पनीर की भुजिया बनायी है या मैंने वेज सूप बनाया है जो अमृता को बहुत पसंद है“ और फिर प्लेट में परोस कर उनके कमरे में ले जाते …
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मैं कभी कभी यह सोचती वह अभी भी कल्पना की दुनिया मैं रह रहें हैं लेकिन कुछ वाक़यात तो ऐसे थे कि मुझे भी चकित कर देते और यक़ीन हो जाता कि वे दोनों अभी भी साथ साथ हैं ।
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बहुत से ऐसे वाक़यात का ज़िक्र मैंने अपनी किताब “ She Lives On“ में किया है । उन सब बातों के बाद तो मुझे भी यक़ीन हो गया था कि वह दोनों साथ साथ हैं.
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यह किताब “She Lives On “ का गुजराती अनुवाद है.
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(उमा त्रिलोक )

इमरोज़ हो नहीं सकते-प्रतिक्षा गुप्ता

इमरोज़ हो नहीं सकते
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मेरे दिल में व्यक्ति इमरोज़ के लिए बहुत इज़्ज़त है। हमेशा रहेगी। इसलिए नहीं कि वह अमृता प्रीतम को अमाप प्रेम करते थे, जो कइयों के लिए आला लेखिका हैं। बल्कि इसलिए कि वह अमृता-साहिर वग़ैरह से ज़्यादा बड़े प्रेमी और मनुष्य थे। कहीं ज़्यादा बड़ा कवि-जीवन उन्होंने जिया, बड़ी कविता संभव किए बग़ैर।
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ऐसा बहुत कम लोग कर पाते हैं। कविता जैसा जीवन जीना। अपना प्रेम चुनना। उसे हर हाल जीना। दुनिया की न परवाह करने का दम भरनेवाले आज के ज़माने से बहुत पहले दुनिया को नाकुछ साबित करके गरिमा से सर्वप्रिय बन जाना आसान नहीं।
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इमरोज़ हमारे संसार का सुख थे। हममें से न जाने कितने हैं, जो अपने लिए एक इमरोज़ चाहते हैं। इमरोज़ होना चाहते हैं। हो नहीं सकते! उन जैसा अन्तःकरण असंभव है।
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( प्रतिक्षा गुप्ता )

अलविदा इमरोज़-उमा त्रिलोक

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सुविख्यात कवियत्री अमृता प्रीतम के पीछे कौन शख़्स ताउमर खड़ा रहा जिस को मुखातिब होकर वह कहा करती थी, “ ईमा, ईमा,तूँ दूर ना जाया कर , मेरे आले दुआले ई रिया कर, तेरा दूर जाना मैनु चंगा नई लगदा “ ( ईमा ईमा ( प्यार से अमृता, इमरोज़ को ईमा बुलाया करती थीं ) तुम दूर मत जाया करो, मेरे आस पास ही रहा करो, तुम्हारा दूर जाना मुझे अच्छा नहीं लगता )
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याद आता है वह वाकया जब निर्देशक गुरुदत्त के बुलावे पर इमरोज़ मुंबई चले गए थे तो अमृता जी ने उन्हें ख़त में लिखा था, “जब से तुम गये हो मुझे बुख़ार चढ़ा हुआ है और जो फल तुम ख़रीद कर रख गये थे वह भी ख़त्म हो गए है । तुम तो जानते ही हो मैं कुछ भी ख़रीद करने बाहर नहीं जाती“
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ख़त पढ़ते ही इमरोज़ जी नौकरी छोड़ कर अपनी अमृता के पास तुरंत दिल्ली लौट आये थे । वह जानते थे अमृता उनकी ग़ैरहाज़िरी में कैसे मुश्किल में रह रही है ।
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बहुत कम लोग जानते थे कि अमृता के पीछे कौन शख़्स खड़ा है जिसके बिना अमृता निःसहाय सी महसूस करती रहती थीं । पूछती थी वह किसे अपनी कविता, कहानी या नावेल सुनाये ? इमरोज़ के बिना वह बहुत अकेली महसूस करती थीं ।
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मैं हैरान हूँ अमृता जी ने स्वर्ग में , इमरोज़ के बिना १८ साल कैसे बिताये होंगे जिस इमरोज़ ने हर मुसीबत में उनका हाथ थामे रखा और हर आँधी , तूफ़ान , बाढ़ से बचाये रखा !
मुझे यक़ीन है अब जब वह इमरोज़ जी को मिली होंगी तो ज़रूर कहा होगा “क्यों ईमा, ऐनी देर क्यों लायी ?“ ( क्यों इमरोज़, इतनी देर क्यों लगायी )
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( उमा त्रिलोक )

પધારો મા…..-માનસી એમ. પાઠક

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આસોની સવાર સાવ ઢૂકડી છે. ભાદરવાનો તપારો હજી શમ્યો નથી પણ વહેલી સવારની શીતળતા વરતાય છે. વર્ષા ઋતુમાં નવયૌવન પ્રાપ્ત કરતી પ્રકૃતિ, શરદમાં મા સ્વરૂપે દરેક રસ એકત્ર કરીને ફક્ત મીઠો રસ પાવા આવે છે. એ આવી રહી છે, ગુલાબી પગલાં પાડતી. એનાં ઝાંઝરનો ઝણકાર આખાય વાતાવરણમાં ગૂંજી રહ્યો છે. સોળ શણગાર સજીને પોતાની સખી, સાહેલડીના વૃંદમાં એ મલકતી આવી રહી છે, કેટલાંય અંધકારના ઓળા પોતાનામાં સમાવતી….શી એની શોભા છે! કરોડો સૂર્યના તેજ એના દેહે સમાયેલા છે. આ આંખને એ સહેવાની એ જોવાની સત્તા નથી.
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એનાં વર્ણન કરવાની લાયકાત નથી. એને દેવી સ્વરૂપે ક્યારેય પામી નહીં શકાય, લાખો કરોડો જન્મો લીધા પછી પણ એનો મહિમા નહીં પામી શકાય. કરોડો બ્રહ્માંડની સ્વામીની જેટલી વિરાટ છે, એટલી સૂક્ષ્મ છે. અતિ મૃદુ, અતિ રૌદ્ર છે., પણ એ મા સ્વરૂપે સાવ નજીક છે. એને મા સ્વરૂપે જ પામી શકાશે. આંસુથી પોચા થયેલા હૈયામાં એ એના પગલાંની છાપ કાયમ માટે છોડેલી રાખે છે. એક સાવ પાતળા આવરણના સામે છેડે એ પોતાને સંતાડીને રાખે છે, અને સમયે સમયે ચિત્તાકાશે ઉજાગર થતી રહે છે. એનાં સુવર્ણ કળશમાં રહેલા મીઠા મધુ અર્કની વહેંચણીમાં ક્યાંય અન્યાય નથી. પોતાનું પૂર્ણ ચૈતન્ય એના બાળકોને આશિષમાં આપવા આવી રહેલી મા. રસ, રૂપ, ગંધ, શબ્દ, સ્પર્શથી આલિંગવા આવી રહેલી મા. કૃતજ્ઞ થઈને ઝૂમી ઉઠવાનો અવસર, ઉત્સવ છે. હરખના તેડાં કરવાનો ઉત્સવ છે.
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न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथा:।
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યથાશક્તિ, યથામતિ આહ્વાન કરું છું મા, ખમ્મા મા, પધારો માવડી…
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( માનસી એમ. પાઠક )

જન્માષ્ટમી વિશેષ

સહુ ભાષા અને સાહિત્યપ્રેમીઓને મારાં સાદર પ્રણામ. શક્ય છે કે આજે જન્માષ્ટમી નિમિત્તે મારી પાસેથી હંમેશની જેમ કોઈ માહિતીસભર લેખ અપેક્ષિત હશે. જો કે સાચું કહું તો કદાચ મેં અત્યાર સુધી ઘણા બધા વાર, તહેવાર, ઉત્સવ, પર્વ કે ઘણી બધી મહાન હસ્તીઓ પર લેખ લખ્યાં હશે પણ મને લાગે છે હું હજી એટલી સમર્થ નથી કે ન તો કદાચ ક્યારેય થઈશ કે કૃષ્ણને કાગળ પર ઉતારી શકું કે એને મારાં શબ્દોની માયાજાળમાં બાંધી શકું.
શક્ય છે મારી આ રચના કદાચ સાહિત્યનાં કોઈ પણ પ્રકારમાં બંધ બેસતી ન હોય પણ મારી અંગત અનુભૂતિ આપ સહુ સમક્ષ આજે વહેતી મુકું છું. આજે જન્માષ્ટમી પર એક અલગ સંવાદ મારાં અંતરમન સાથેનો…!!
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બોલ તને કોને મળાવું..???
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મારાં અંતરમનમાં એના કેટકેટલાં રૂપ હું નિહાળું.
મન કહે, બોલ તને કાના, કૃષ્ણ કે દ્વારકાધીશ ને મળાવું.
મેં કહ્યું, કાનો કૃષ્ણ કે દ્વારકાધીશ બધુંય એકનું એક!
મન કહે, કાયા ભલે એક પણ એની માયાનાં રૂપ અનેક.
મેં કહ્યું, નામમાં વળી અંતર કેવું? શાને આ ભેદ છાનો?
મન કહે, જેણે ચીર પૂર્યા એ કૃષ્ણ ને વસ્ત્રો ચોર્યા એ કાનો.
મન કહે, બોલ તને કાના ને મળાવું?
મેં કહ્યું, કાનો એટલે રાસલીલા ગોપીઓની,
વૃંદાવનમાં વગોવાતી એ માખણચોરીની,
ને સાનભાન ભુલેલી એ કાનાઘેલી રાધાની,
મને ન ગોઠી વાત વાંસળીનાં સુર રેલાવતા કાનાની..!!
મન કહે, બોલ તને કૃષ્ણને મળાવું?
મેં કહ્યું, કૃષ્ણ તો ભરથાર રુક્મણિનો,
એની આઠ-આઠ પટરાણીઓનો,
ને વધુમાં સોળહજાર એકસો રાણીઓનો.
તારણહાર બધાયનો પણ મને ન ગોઠે સંગાથ કૃષ્ણનો..!!
મન કહે, બોલ તને દ્વારકાધીશને મળાવું?
મેં કહ્યું, દ્વારકાધીશ તો જગતનો નાથ,
શોભાવે રથયાત્રા બની જગન્નાથ,
એની પ્રજા પર એનાં ચાર-ચાર હાથ
મને ન ગોઠે એ મુકુટધારી દ્વારકાધીશનો સાથ..!!
મનડું પૂછે, કાનો કૃષ્ણ કે દ્વારકાધીશ, તારે કરવી કોની હારે પ્રીત?
મેં કહ્યું, રાધા, રુક્મણિ કે મીરાં, હતી ક્યાં કોઈનીય હાર કે જીત!
જેણે એને જે રૂપે ચાહ્યો, એણે એને એ જ સ્વરૂપે પામ્યો.
રાધાનો કાન, રુક્મણિનો નાથ ને મીરાનો મોહન ઓળખાયો.
મારું મન તો સદાય ઝંખે છે એનો સાથ માત્ર એક જ રૂપે,
હું માત્ર એની સખી ને પામ્યો મેં એને મારા સખા સ્વરૂપે.
ઓ રે મનડાં ! ‘ઝીલ’ ને ક્યાંથી ગોઠે તારો કાનો, કૃષ્ણ કે દ્વારકાધીશ;
હું તો મોરપીંછ સમાન, વાંસળીનાં સુરમાં ક્યાંક એમ જ વહી જઈશ..!!
– વૈભવી જોશી ‘ઝીલ’
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શ્રી કૃષ્ણને દેવ કહેવા, જગતનાં પાલનહાર કહેવા, પથદર્શક કહેવા, જગતગુરુ કહેવા, સખા કહેવા કે પછી કદાચ કૃષ્ણ માટે વપરાતાં તમામ વિશેષણો અતિક્રમી જવાય ને છતાંય કૃષ્ણ એટલે શું એ કહી ન શકાય.
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કૃષ્ણ એટલે જેને પ્રેમ કરી શકાય, એનો મોહ હોય, એનું આકર્ષણ હોય, એની તરફ વગર કોઈ કારણે તમે ખેંચાઈ જાઓ એવું વશીકરણ હોય, એના પર આંધળો વિશ્વાસ નહિ પણ સંપૂર્ણ શ્રદ્ધા મૂકી શકાય, એની સામે રડી શકાય, એની સાથે ઝગડી શકાય, એના પર હક કરી શકાય, એના જેટલું અંગત કોઈ જ નહિ, એની સામે હળવા થઈ શકાય, એની આગળ સંપૂર્ણ સમપર્ણ કરી શકાય, એની સામે શરણાગતિ સ્વીકારી શકાય કે પછી કૃષ્ણ એટલે જેમાં એકાકાર થઈ શકાય.
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આ ગીત બહુ પ્રચલિત છે ‘ગોરી રાધાને કાળો કાન….’ મને હંમેશા એવું લાગ્યું છે કે કૃષ્ણ સાથે કાળો રંગ કદાચ એટલા માટે જોડાયેલો છે કેમ કે કાળો રંગ બધા પર ચડે પણ કાળા રંગ ઉપર બીજો કોઈ રંગ ચડતો નથી. એવી જ રીતે જેનાં પર કૃષ્ણનો રંગ ચડ્યો હોય પછી એના પર બીજા કોઈનો રંગ ચડે ખરાં ??
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કૃષ્ણ એટલે મનુષ્ય તરીકે આદર્શ જીવન જીવીને બતાવનાર, જન્મતાની સાથે જ દરેકેદરેક પ્રતિકૂળતાઓનો સામનો કરી બતાવનાર, સામાન્ય મનુષ્યની જેમ પ્રેમ કરી શકનાર અને વિરહની વેદના પણ ભોગવી જાણનાર, માતાપિતાથી છુટા પડ્યાનું દુઃખ હોય કે એના પ્રિય એવા ગોકુળવાસીઓ, મથુરા, એની રાસલીલા, બાળપણનાં મિત્રો, રાધા, ગોપીઓ સર્વેને છોડી જવાનું દુઃખ હોય. આ બધામાંથી પસાર થઈ કુરુક્ષેત્ર સુધી પહોંચવાની યાત્રા સરળ તો નહિ જ હોય ને !
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આપણે બધા આજ સુધી કૃષ્ણને મોટા ભાગે બાળ સ્વરૂપે યાદ કરતા આવ્યા છીએ કે એની રાસલીલાઓ યાદ કરતા આવ્યા છીએ. જોકે અંગત રીતે મને એ કૃષ્ણ ગમે છે જેણે ધર્મની રક્ષા માટે શસ્ત્રો ઉગામવા કહ્યું, ‘પાર્થ ને કહો ચડાવે બાણ…’ અધર્મ સામે એમની ભાષામાં વાત કરી, એમનાં કપટ અને કૂટનીતિનાં ઉત્તર સામે મુત્સદ્દીગીરી વાપરી.
ખાસ તો ભીષ્મની પ્રતિજ્ઞા જે યથાવત રાખવાનાં કારણે આ મહાભારતનું મહાભીષણ યુદ્ધ રચાયું એની સામે કુરુક્ષેત્રની મધ્યમાં બધા વચ્ચે પોતાની જ લીધેલી પ્રતિજ્ઞા તોડી શસ્ત્રો ઉગામ્યાં અને આખાય જગતને એક મહત્વનો સંદેશ આપ્યો કે પ્રતિજ્ઞા એ ધર્મ અને માનવકલ્યાણ કરતાં મોટી તો ન જ હોઈ શકે.
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ચંદ્રવંશીઓને પોતે લીધેલી પ્રતિજ્ઞાઓનું બહુ અભિમાન પછી એ મહામહિમ ભીષ્મ હોય કે જેનાં સારથી સ્વંય કૃષ્ણ પોતે છે એવો અર્જુન પણ એ પ્રતિજ્ઞાઓનાં મૂલ્યો એમની પ્રજાએ ભોગવ્યા ત્યારે પોતે સ્વયં નારાયણ હોવા છતાં ધર્મ અને માનવકલ્યાણ માટે જે પોતાની જ લીધેલી પ્રતિજ્ઞા તોડી શકે એ મારે મન કૃષ્ણ !
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કૃષ્ણ એટલે માતા ગાંધારીનાં શ્રાપને પણ આશીર્વાદ સમજી પ્રેમથી ગ્રહણ કરનાર. કૃષ્ણ એટલે પરિશ્રમનો મહિમા સમજાવવા ખાંડવવનને ઇન્દ્રપ્રસ્થમાં ફેરવનાર. કૃષ્ણ એટલે સમય વર્તીને રણને છોડનાર. કૃષ્ણ એટલે કહેવાતા સભ્ય સમાજે ત્યજેલી સોળહજાર એકસો પૂજનીય નારીઓનો તારણહાર.
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કૃષ્ણ એટલે કહેવાતા ક્ષત્રિયોથી ખીચોખીચ ભરેલી સભામાં દ્રૌપદીનાં ચીર પૂરનાર સ્ત્રી સન્માનનો રક્ષક. કૃષ્ણ એટલે ક્ષમ્ય ભૂલો માટે ક્ષમા કરનાર પણ એક હદ વટાવ્યા પછી અક્ષમ્ય અપરાધ માટે સુદર્શન છોડનાર. કૃષ્ણ એટલે કળયુગમાં જીવન કેવી રીતે જીવવું એનું આદર્શ દ્રષ્ટાંત પૂરું પાડનાર.
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ટૂંકમાં કહું તો કૃષ્ણ એટલે વાસ્તવિકતાનો સંપૂર્ણ સ્વીકાર, નિરાકાર તોય જેનામાં એકાકાર થઈ ભળી જવાય એ મારે મન કૃષ્ણ..!! એક કૃષ્ણપ્રેમી કહો કે કૃષ્ણઘેલી કહો એનાં તરફથી સહુને જન્માષ્ટમીની કૃષ્ણમય શુભેચ્છાઓ..!!
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( વૈભવી જોશી )

अमृता प्रीतम को उनके जन्मदिन पर याद करते हुए

॥ अमृता प्रीतम को उनके जन्मदिन पर याद करते हुए ॥

आज अमृता प्रीतम जीवित होतीं तो जीवन का शतक पूरा कर चुकी होतीं।

उनका जन्म 1919 में 31 अगस्त के दिन हुआ था। वे हमारे साथ 31 अक्तूबर, 2005 तक रहीं।

उनकी शताधिक पुस्तकें पाठकों के बीच सदा चर्चित रहीं, वे उनके आगमन की प्रतीक्षा करते रहते थे। अपनी निजी ज़िंदगी में वे एकदम बिंदास थीं, कभी कुछ नहीं छिपाया। खोजी पत्रकारों को ध्वस्त करते हुए वे अपने बारे सब कुछ खुद ही उजागर कर देती थीं, लिख देती थीं। यही कारण था कि उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ हर पाठक ने पढ़ी। उन्हें अपने कृतित्व के लिए भारत सरकार ने पद्मभूषण से भी सम्मानित किया था।

जब 1982 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई, मैं राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर में पढ़ रहा था। थोड़ी बहुत पत्रकारिता भी कर लेता था। यह समाचार सुन कर, मैं अगले दिन राजस्थान के एक प्रसिद्ध समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका के लिए उनका साक्षात्कार लेने के लिए, उनसे दिल्ली जाकर मिला।

एक 22-23 साल के लड़के को टेप रेकॉर्डर और कैमरा लिए देख कर उन्होंने स्नेह से मेरे सर पर हाथ रखते हुए पूछा- तुम मुझे समझ पाओगे? अभी तो कोई इश्क का तजुरबा भी नहीं होगा तुम्हारे पास। मैं शरमा कर रह गया। मैंने कहा – मैंने आपकी कई सारी किताबें पढ़ी हैं। कुछ को तो रास्ते में पढ़ता हुआ आया हूँ।

उन्होंने बड़े स्नेह से इंटरव्यू दिया और चलते हुए कहा- मेरे सभी फोटो मुझे दे देना, उनसे इश्क मत कर बैठना वरना इमरोज़ का दिल बैठ जाएगा।
पास के कमरे में बैठे इमरोज़ धीरे-धीरे मुस्कुरा रहे थे।

आज वह पुराना चित्र आपके लिए खोजा है।

( राजेश्वर वशिष्ठ )

કેટલાક વળી-તુષાર શુક્લ

કેટલાક વળી વર્ષગાંઠે ઉદાસ બની જાય છે
વિચારે છે કે એક વર્ષ ઓછું થયું…
વિચારી તો એમ પણ શકાય ને કે એક વર્ષ વધ્યું?!
પ્યાલો અરધો ખાલી ય છે.
પ્યાલો અરધો ભરલો ય છે.
બંને સત્ય છે!

સવાલ સમજણનો છે. દ્રષ્ટિનો છે.
જે જીવનને માણે છે એ વધઘટના હિસાબમાં નથી અટવાતા.
જે વર્ષોને વેડફે છે એ જ વર્ષ ઘટ્યાનાં રોદણાં રડે છે.
સમય ન હોવાની ફરિયાદ કરનારાનું સમયપત્રક જ,
વાસ્તવમાં, ખોટું હોય છે!

દિવસ આખાનું વ્યવસ્થિત આયોજન હોય
એમની પાસે ઉડાડવા માટેનો ય સમય હોય છે.
સમયને વેડફનારાને જ સમય ખૂટે છે!

( તુષાર શુક્લ )