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लाख मिल जाऐंगे-खलील धनतेजवी

लाख मिल जाऐंगे चहेरे को सजाने वाले,
ढूंढ कर लाईए आईना दिखाने वाले.

फल गिरेंगे तो चले आऐंगे खाने वाले,
हम तो हैं पेड की शाखों को हिलाने वाले.

कुछ तो अच्छों में भी होती है बुराई, माना,
सब से बदतर हैं मगर दिलको दुखाने वाले.

घर तो है, घर का पता भी है, मगर कया कीजे,
घर पे होते ही नहीं घर पे बुलाने वाले.

किसने देखी है खलील ऐसे घरों की हालत,
जेल में होते हैं जिस घर के कमाने वाले !

( खलील धनतेजवी )

मचल जाने दिया होता-खलील धनतेजवी

समन्दर, ऐहले साहिल को मचल जाने दिया होता,
तेरा पानी जरा सा और उछल जाने दिया होता.

राजर जो तुमने कटवाया, हरा हो भी तो सकता था,
फकत पतझड का ये मोसम बदल जाने दिया होता.

जरा मौका तो देना था, मेरे रेहमो-करम वालो,
मुझे खुद ही संभलना था, संभल जाने दिया होता.

तेरे ऐहसान से तो आग के शोले ही बेहतर थे,
मेरा घर जल रहा था, काश जाने दिया होता.

तुम्हें तर्के-तअल्लुक की जरुरत ही न पेश आती,
फकत इजहार करना था, अमल जाने दिया होता.

यहां यूं बेसबब मेरी गिरफतारी नहीं होती,
मुझे करफ्यू से पहले ही निकल जाने दिया होता.

खलील अबतक किसी शोला बदन सांसों की गरमी से,
तेने अंदर के पथ्थर को पिघल जाने दिया होता.

( खलील धनतेजवी )

[ राजर-વૃક્ષ, तअल्लुक-સંબંધ વિચ્છેદ, इजहार-જાહેર ]

तलाश करता है-खलील धनतेजवी

न जाने किस का कबीला तलाश करता है,
फकीर शहेर का नकशा तलाश करता है !

मिटा के रात की तारीकियां ये सूरज भी,
जमीं पे अपना ही साया तलाश करता है !

बना के खन्दकें हर सिम्त अपने हाथों से,
अजीब शख्स है रस्ता तलाश करता है !

मैं जानता हुं, मेरी प्यास पर तरस खा कर,
वो मेरी आंख में दरिया तलाश करता है !

खलील आज वो आईने बेचने वाला,
कूएं में झांक कर चहेरा तलाश करता है !

( खलील धनतेजवी )

[ तारीकियां-અંધકાર, सिम्त-ખાઈઓ, खन्दकें-દિશા ]

मुजे वापस दे दो-खलील धनतेजवी

मेरी नींदो का उजाला मुजे वापस दे दो,
कल जो टूटा है वो सपना मुजे वापस दे दो !

तुम से पाई हुई ईज्जत तुम्हें लौटा दूंगा,
मेरा छीना हुआ रुत्बा मुजे वापस दे दो !

जाओ मत दो मेरी महेनत का सीला भी मुज को !
तुम मेरा खूनपसीना मुजे वापस दे दो !

खुद मेरे गांव के लोगों ने पहेचाना मुजे,
शहेरवालो, मेरा चहेरा मुजे वापस दे दो !

फिर नया चांद पहाडों से उतारुंगा खलील,
मेरे माझी का अंधेरा मुजे वापस दे दो !

( खलील धनतेजवी )

मौत मैंने कहां बुलाई है ! – चिनु मोदी

मौत मैंने कहां बुलाई है !
वक्त के साथ साथ आई है !

तेरे मरने के बाद जिन्दा हूं,
दोस्ती हमने कब निभाई है ?

बेरहम तेरे सितम की सोटी,
चप्पेचप्पे पे चमचमाई है ?

जिन्दा रहेने की अब भी चाहत है
मोमबत्ती कहां बुझाई है ?

असली तसवीर छूपा कर तेरी,
मैंने ईज्जत तेरी बढाई है.

यूं हो गर्दिश से खौफ ऊतरा है,
आग मैंने कहां लगाई है ?

देख ‘ईर्शाद’ लिख्खा मस्जिद पर,
‘मांगने की यहां मनाई है’.

( चिनु मोदी )

जिस तरह पानी का कतरा कश्ति के काबिल हुआ – चिनु मोदी

जिस तरह पानी का कतरा कश्ति के काबिल हुआ
मैं तुम्हारी जिंदगी में ईस तरह शामिल हुआ

बाद मुद्त भी तुम्हें यह बात समजाती नहीं ?
मैं तेरी रहेमोकरम से सब जगह बातिल हुआ ?

जो भी भले सबने बताया था गलत तेरा पता-
चलते चलते ईस तरह जन्नत में मैं दाखिल हुआ

प्यार में होता है, ऐसा बंदगी में भी हुआ
मैं तुम्हारी चीकनी चीकनी बातों से गाफिल हुआ

यह सरासर जूठ है, यह जूठ है, हां जूठ है
तू नहि पैदा हुआ तो कैसे में कातिल हुआ ?

( चिनु मोदी )

वापिस आया – चिनु मोदी

दस्तक दे कर वापिस आया,

नकली था घर वापिस आया.

.

एक अजुबा हमने देखा,

पानी अकसर वापिस आया.

 .

मयखाने में मुल्लाजी थे,

गंगा तट पर वापिस आया.

 .

चारो ओर तबाही देखी,

कटा कटा सर वापिस आया.

.

( चिनु मोदी )

देह के लिबास – आशा पाण्डेय ओझा

आज फिर उग आई है

खयालों की जमीन पर वो याद

जिस शाम मिले थे

हम तुम पहली बार

और मौसम की

पहली पर तेज बारीश भी तो

हुई थी उसी रोज

चाय की इक छोटी सी थडी में

ढूँढी थी हमने जगह बारिश से बचने को

ठीक वैसे ही

कहीं न कहीं हम बचते रहे

कहने से मन की बात

और चाहते भी रहे इक दूजे को

कितनी पाकीजा होती थी ना तब मुहब्बतें

देह से परे

सिर्फ रुहें मिला करती थी

और मोहताज भी नहीं थी शब्दों की

हाँ पूर्णता कभी मोहताज नहीं होती

ना शब्दों की ना देह की

वो अनछुए अहसास आज भी जीती हूँ

बरसा-बरस बाद

तुम भी जीते होओगे ना

वो लम्हे आज भी

ठीक मेरी ही तरह

हाँ जेते तो होगे जरुर

तुम भी तो ठहरे मेरी ही पीढी के

तब की पीढियाँ नहीं बदला करती थी

रोज-रोज महब्ब्त के नाम पर देह के लिबास

 .

( आशा पाण्डेय ओझा )

मुहब्ब्त का रिश्ता – आशा पाण्डेय ओझा

उगते सूरज से लेकर

डूबती रात तक

बता कोई लम्हा

जो खाली रहा हो

मेरे दिल में कभी

तेरे खयाल से

यह कहाँ का न्याय

मुहब्ब्त का रिश्ता

शुरु तूने किया

निभा रही हूँ मैं

जितनी परेशानी नहीं

तेरे भूल जाने की

आदत से

उतनी परेशान हूँ

जालिम

अपनी याद रहने की

इस आदत से

.

( आशा पाण्डेय ओझा )

मेरी आवश्यकता – बृजेश नीरज

अब तक संजोए था

अपना आकाश

और एक धरती

 .

लेकिन जाने कहाँ से

तुम आ गए जीवन में

तोडकर सारे मिथक

औए वे झरोखे बंद हो गए

जहाँ से देखता था

आकाश

टूट गए वो पैमाने

जिनसे नापता था धरती

 .

तुम्हारे प्रेम में

कुछ और विस्तार पा गया मेरा आकाश

तुम्हारे स्पर्श ने

दे दी असीमता मेरी धरा को

 .

तुम्हारा आना

एक इत्तेफाक हो सकता है

लेकिन तुम्हारा होना

अब मेरी आवश्यकता है

.

( बृजेश नीरज )