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खेल – ईमरोज

रंगो के साथ खेल

हो रहा था

कि तू आ गयी

अपने रंगो मिला कर खेलने…

 .

खयालों के खाके

तस्वीरें बनने लग गये

और जिन्दगी अपने आप कविता

और कविता अपने आप

जिन्दगी हो कर

खयालों के साथ

आ मिली…

 .

( ईमरोज )

तराश ही तराश – ईमरोज

प्यार के रिश्ते

बने बनाए नहीं मिलते

जैसे माहिर बुत तराश को

पहली नजर में ही अनगढ पत्थर में से

संभावना दिख जाती है-मास्टर पीस की

मास्टर पीस बनाने के लिए

बाकी रह जाती है सिर्फ तराश तराश तराश

 .

उसी तरह

दो इन्सानों को भी पहली नजर में

एक दूसरे में संभावना दिख जाती है-

प्यार की-जीने योग्य रिश्ते की

बाकी रह जाती है-तराश तराश तराश-

बोलते सुनते भी

खामोशी में भी

और एक दूसरे को देखते हुए भी

और न देखते हुए भी

 .

बुततराश की तराश तो

एक जगह पर आकर खत्म हो जाती है

जब उसका मास्टर पीस मुकम्मल हो जाता है

जैसे प्यार के रिश्ते की

तराश भी खत्म होती नहीं

सिर्फ उम्र खत्म होती है…

 .

ये जिन्दगी का रिश्ता दिलकश रिश्ता

एक रहस्यमय रिश्ता

ना ये रिश्ता खत्म होता है

और ना ही इसकी तराश तराश…

 .

( ईमरोज )

संपूर्ण औरत – ईमरोज

चलते चलते एक दिन

पूछा था अमृता ने-

तुमने कभी वुमैन विद माईंड (woman with mind)

पेंट की है ?

चलते चलते मैं रुक गया

अपने भीतर देखा अपने बाहर देखा

जवाब कहीं नहीं था

चारों ओर देखा-

हर दिशा की और देखा और किया इंतजार

पर न कोई आवाज आई, न कहीं से प्रतिउत्तर

जवाब तलाशते तलाशते

चल पडा और पहुंच गया-

पेटिंग के क्लासिक काल में

अमृता के सवाल वाली औरत

औरत के अंदर की सोच

सोच के रंग

न किसी पेटिंग के रंगो में दिखे

न किसी आर्ट ग्रंथ में मुझे नजर आए

उस औरत का, उसकी सोच का जिक्र तलाशा

हां

हैरानी हुई देख कर

किसी चित्रकार ने औरत को जिस्म से अधिक

न सोचा लगता था, न पेंट किया था

संपूर्ण औरत जिस्म से कहीं बढकर होती है

सोया जा सकता है औरत के जिस्म के साथ

पर सिर्फ जिस्म के साथ जागा नहीं जा सकता

अगर कभी चित्रकारों ने पूर्ण औरत के साथ जागकर

देख लिया होता

और की और हो गई होती चित्रकला-अब तलक

माडर्न आर्ट में तो कुछ भी साबुत नहीं रहा-

न औरत, न मर्द और न ही कोई सोच…

गर कभी मर्द ने भी औरत के साथ जाग कर देख लिया होता,

बदल गई होती जिन्दगी हो गई होती जीने योग्य-जिन्दगी

उसकी और उसकी पीढी की भी…

 .

( ईमरोज )

उस पार – बृजेश नीरज

सोचता हूँ

क्या होगा

नीले आकाश के पार

 .

कुछ होगा भी

या होगा शून्य

.

शून्य

मन जैसा खाली

जीवन सा खोखला

आँखों सा सूना

या

रात जैसा स्याह

 .

कैसा होगा सब कुछ

होगी गौरैया वहाँ ?

देह पर रेगेंगी चींटियाँ ?

 .

या होगा सब

इस पेड की तरह

निर्जन और उदास;

सागर में बूँद जितना

अकल्पनीय

जाए बिन

जाना कैसे जाए

और जाने को चाहिए

पंख

पर पंख मेरे पास तो नहीं

.

चलो पंछी से पूछ आएँ-

गरुड से

 .

ढूँढते हैं गरुड को

 .

( बृजेश नीरज )

याद के बादल – आशा पाण्डेय ओझा

फिर घिर आये

याद के बादल

फिर हरिया उठा

पीड का पलाश

फिर झरी

मन की छत पर

गीली-चाँदनी ख्वाबों की

हल्की-हल्की बयार ने

फिर खोली आज

चाहत के दिनों से

जोडी हुई

सुरभिमय अहसास की

वो रंग-बिरंगी शीशियाँ

जो दबा रखी है

मन की तहों के नीचे

सबसे छुपकर मैंने

और शायद

तुमने भी

 .

( आशा पाण्डेय ओझा )

अपने अंतर में ढालो ! – राहुल देव

मेरे अंतर को

अपने अंतर में ढालो

हे इतिवृत्तहीन

अकल्मष !

मेरे अंतस के दोषों में

श्रम प्रसूति स्पर्धा दो

बनूँ मैं पूर्ण इकाई जीवन की

गूंजे तेरा निनाद उर में हर क्षण

विश्वनुराक्त !

तम दूर करो इस मन का

अंतर्पथ कंटक शून्य करो

हरो विषाद दो आह्लाद

मैं बलाक्रांत, भ्रांत, जडमति

विमुक्ति, नव्यता, ओज मिले

परिणीत करो मेरा तन-मन

मैं नित-नत पद प्रणत

नि:स्व

तुम्हारी शरणागत !

 .

( राहुल देव )

गजल कहनी पडेगी – ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र

गजल कहनी पडेगी झुग्गियों पर कारखानों पर

ये फन वरना मिलेगा जल्द रद्दी की दुकानों पर

 .

कलन कहता रहा संभावना सब पर बराबर है,

हमेशा बिजलियाँ गिरती रहीं कच्चे मकानों पर

 .

लडाकू जेट उडाये खूब हमने रात दिन लेकिन

कभी पहरा लगा पाये न गिद्धों की उडानों पर

 .

सभी का हक है जंगल पे कहा खरगोश ने जबसे

तभी से शेर, चीते, लोमडी बैठे मचानों पर

 .

कहा सबने बनेगा एक दिन ये देश नंबर वन

नतीजा देखकर मुझको हँसी आई रुझानों पर

.

( ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र )

सूरज से… – सौरभ पाण्डेय

ये साँझ सपाट सही

ज्यादा अपनी है

 .

तुम जैसी नहीं

 .

इसने तो फिर भी छुआ है

भावहीन पडे जल को तरंगित किया है

बार-बार जिन्दा रखा है

सिन्दूरी आभा के गर्वीले मान को

 .

कितने निर्लिप्त कितने विकल कितने न-जाने-से तुम !

 .

किसने कहा मुठ्ठियाँ कुछ जीती नहीं ?

लगातार रीतते जाने के अहसास को

इतनी शिद्त से भला और कौन जीता है !

तुमने थामा.. ठीक

खोला भी ? .. कभी ?

मैं मुठ्ठी होती रही लगातार

गुमती हुई खुद में…

 .

कठोर !

 .

( सौरभ पाण्डेय )

साथ-साथ – डॉ. सूर्या बाली ‘सूरज’

बेघर हुए हैं ख्वाब धमाकों के साथ-साथ

बहशत भी जिंदा रहती है साँसों के साथ-साथ

 .

जब रौशनी से दूर हूँ कैसी शिकायतें

अब उम्र कट रही है अँधेरों के साथ-साथ

 .

दरिया को कैसे पार करेगा वो एक शख्श

जिसने सफर किया है किनारों के साथ-साथ

 .

वीरान शहर हो गया जब से गया है तू

हालांकि रह रहा हूँ हजारों के साथ-साथ

 .

पत्ता शजर से टूट के दरिया में जो गिरा

आवारा वो भी हो गया मौजों के साथ-साथ

 .

मुद्त हुई की नींद चुरा ले गया कोई

कटती है अब तो रात सितारों के साथ-साथ

 .

तन्हाइयों के दौर में तन्हा नहीं रह

‘सूरज’ सफर में तिरी यादों के साथ-साथ

 .

( डॉ. सूर्या बाली ‘सूरज’ )

સાધુ ઐસા ચાહિએ – હરકિસન જોષી

ગેરૂઆ વસ્તર નહીં, ભભૂત ભસ્મ નહીં અંગ

સાધુ ઐસા ચાહિએ એકલ ઔર નિ:સંગ

 .

ટીવી પર ચમકે નહીં આપે નહીં વ્યાખ્યાન

સાધુ ઐસા ચાહિએ માન નહીં સન્માન

 .

આશ્રમ નહીં આસન નહીં, નહીં ટ્રસ્ટ મઠ ધામ

સાધુ ઐસા ચાહિએ નહીં સ્થાન નહીં ઠામ

 .

તિલક છાપ ચંદન નહીં, છત્ર મુગટ નહીં દંડ

સાધુ ઐસા ચાહિએ, ફંદ નહીં કોઈ ફંડ

 .

નામ નહીં ઓળખ નહીં, નહીં બિરુદ ઇલ્કાબ

સાધુ ઐસા ચાહિએ નિર્મલ બહેતા આબ

 .

નહીં તસ્વીર નહીં મૂરતી, પૂજન દે નહીં પાંવ

સાધુ ઐસા ચાહિએ જૈસી તરુવર છાંવ

 .

લિંગ ભેદ વ્યાપે નહીં ઐસા ચેતન દેહ

સાધુ ઐસા ચાહિએ પવન ઉડાઈ ખેહ

 .

તન મન હરિ કો દે દિયા આપ હરિમે લીન

સાધુ ઐસા ચાહિએ જૈસી જલમે મીન.

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( હરકિસન જોષી )